डेटा के जंगल में गुम होता बचपन

By Shobhna Jain | Posted on 1st Aug 2017 | मुद्दा
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नई दिल्ली, 1 अगस्त | हर चीज के अच्छे और बुरे पहलू होते हैं। अगर अच्छे पहलू को आप फॉलो करते हैं, तो आपको उसका सही फायदा मिलता है और अगर बुरे पहलू को फॉलो करते हैं, तो नुकसान और भटकाव के अलावा आपको कुछ नहीं मिलता। यही हाल आजकल के इंटरनेट लविंग बच्चों का है, जिनका बचपन रचनात्मक कार्यो की जगह डेटा के जंगल में गुम हो रहा है। पिछले कई सालों में सूचना तकनीक ने जिस तरह से तरक्की की है, इसने मानव जीवन पर बेहद गहरा प्रभाव डाला है। न सिर्फ प्रभाव डाला है, बल्कि एक तरह से इसने जीवनशैली को ही बदल डाला है। शायद ही ऐसा कोई होगा, जो इस बदलाव से अछूता होगा। बच्चे और युवा तो सूचना तकनीक के प्रभाव से इस कदर प्रभावित हैं कि एक पल भी वे स्मार्टफोन से खुद को अलग रखना गंवारा नहीं समझते। एक तरह से कहें, तो इनमें हर समय एक तरह का नशा सा सवार रहता है। वैज्ञानिक भाषा में इसे 'इंटरनेट एडिक्शन डिस्ऑर्डर' कहा गया है। 

हाल के दिनों में जिस रिलायंस जियो ने मोबाइल डेटा के क्षेत्र में जिस तरह की जंग छेड़ी है, उसने इस समस्या को और विकराल कर दिया है। लगभग सभी कंपनियां बेहद कम पैसों में असीमित डेटा ऑफर कर रही हैं, जिसका खासकर बच्चे व युवा खुलकर लुत्फ उठा रहे हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि इसका इस्तेमाल वे अपने लिए रचनात्मक कार्यो में न के बराबर कर रहे हैं। सारा दिन फेसबुक, ट्विटर, स्काइप और सबसे गंभीर मुद्दा पॉर्नोग्राफिक साइटों को ब्राउज करने में लगे रहते हैं।

दक्षिणी दिल्ली के साकेत स्थित मैक्स सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल में मेंटल हेल्थ व विहेवियरल साइंस विभाग के प्रमुख डॉ. समीर मल्होत्रा ने कहा, "समस्या तो पहले से ही थी, लेकिन हाल के दिनों में हालत और बदतर हुई है। कच्ची उम्र के बच्चे जो सही और गलत में फर्क नहीं कर पाते वे पॉर्नोग्राफी के कुचक्र में आसानी से फंस जाते हैं। पढ़ने-लिखने व अन्य रचनात्मक कार्यो में अपना समय देने के बदले वे अश्लीलता के दलदल में फंस रहे हैं और अपना कीमती वक्त मोबाइल पर खर्च कर रहे हैं। ऐसे बच्चों की तादाद तेजी से बढ़ रही है, जिनकी सबसे बड़ी जरूरत सिर्फ और सिर्फ मोबाइल डेटा है। आठवीं कक्षा का छात्र शिवम अक्सर क्लासेस बंक करता है। अपने दोस्तों से भी अब वह ज्यादा बात नहीं करता। अपना अधिकांश समय वह ऑनलाइन गेम खेलने और इंटरनेट ब्राउज करने में बिताता है। और तो और, सड़क पर भी वह मोबाइल पर गेम खेलने में व्यस्त रहता है। दरअसल, बात सिर्फ शिवम की ही नहीं है। इन दोनों की तरह देश के लाखों युवा इंटरनेट की वह हद पार कर रहे हैं, जिसे आईएडी (इंटरनेट एडिक्शन डिस्ऑर्डर) नाम दिया गया है। 

डॉ.मल्होत्रा ने कहा, "हमारे पास कई अभिभावक अपने बच्चों को इलाज के लिए लेकर आते हैं। कई बच्चे तो पूरी तरह वर्चुअल दुनिया में खोए रहते हैं। एक बच्चा तो ऐसा था कि उसे मोबाइल इस्तेमाल करने के चक्कर में यह भी पता नहीं चल पाता था कि उसने पैंट में ही पॉटी कर दी है। माता-पिता भी शुरुआत में बच्चों के इस असामान्य व्यवहार को नोटिस नहीं कर पाते, लेकिन जब हालात बदतर हो जाते हैं, तब उन्हें लगता है कि कुछ गड़बड़ है और फिर बच्चे को लेकर चिकित्सक या काउंसेलर के पास पहुंचते हैं। महानगरों में यह मानसिक बीमारी इस कदर बढ़ चुकी है कि कई युवाओं को तो स्वास्थ्य सुधार केंद्र में भर्ती कराना पड़ रहा है। हालात ये हैं कि यदि इस पर काबू नहीं पाया गया, तो समाज में एक नई विकृति पैदा हो सकती है। इंटरनेट एडिक्शन डिस्ऑर्डर के लक्षण हर शहर के युवाओं में उभरने शुरू हो चुके हैं। इससे पहले कि युवा इस रोग की चपेट में पूरी तरह आ जाएं, ठोस कदम उठाना बेहद जरूरी है। 

इस बारे में डॉ. मल्होत्रा ने कहा, "मोबाइल इंटरनेट ने सबसे बड़ा बदलाव मानव की जीवनशैली पर डाला है। रात को सोने के बजाय लोग मोबाइल की स्क्रीन पर नजरें टिकाए रहते हैं। दरअसल, लंबे समय तक ऐसा करने से नींद न आने की समस्या पैदा हो जाती है। जैसे-जैसे अंधेरा छाता है दिमाग में मेलेटॉनिन की मात्रा बढ़ती जाती है, जिससे हमें नींद आती है, लेकिन जब हम नींद को नजरअंदाज करते हुए मोबाइल पर नजरें टिकाए रहते हैं, तो धीरे-धीरे मेलेटॉनिन का बनना बंद हो जाता है, जिससे नींद न आने की बीमारी (इंसोम्निया) का खतरा पैदा हो जाता है। ऐसी हालत में लंबे वक्त तक दवाई के सहारे रहना पड़ सकता है। उन्होंने कहा, "सबसे बेहतर यही है कि बच्चों को मोबाइल से दूर रखें। सप्ताह में एक दिन सिर्फ छुट्टी के दिन ही मोबाइल उनके हाथ में दें। बच्चा इंटरनेट पर क्या ब्राउज करता है, उसपर भी नजर रखें। बच्चों को तकनीक का सही इस्तेमाल करना सिखाएं। -आईएएनएस

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