मॉ, अब क्यों नही आती हैं गौरेया? क्या नाराज हैं हमारी चिरय्या?

By VNI India | Posted on 20th Mar 2025 | मुद्दा
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नई दिल्ली 20 मार्च (  सुनील कुमार /वीएनआई) भोर के धुंधलका और धीरें धीरें उस धुंधलतें को धकेलती मद्धम रोशनी...तिलस्मी सा माहौल..
 धुंधलके  की मद्धम रोशनी में यह हैं , राजस्थान के बीकानेर शहर का एक घर,   खुला ख  घर, जहा सुबह की हल्की तपिश लिये सूरज और मद्धम मद्धम इठलाती सी हवा बह रह रही  हैं  और लॉन में लगे विशाल अशोक के पेड़ और घर  में लगे  दूसरें पेड़.. इन्हीं पेड़ों पर  लटकाई गई लक़ड़ियों की छोटी  झोंपड़ियॉ  ,जहा कुछ झोंपड़ियों में चिड़ियों ने अपने बसेरे भी बनायें है. और भोर के इस धुंधलकतें में इन पेड़ों पर बसेरा बनाने वाली चीड़ियों की  लगातार तेज  होती चहचाहट, और फिर शाम होते होतें एक बार फिर  यह घर ऑगन  चिड़ियों की  चीं चीं की चहचहाट  भरे मिलन से से गुलजार.पूरा माहौल भावुक सा  ्लगता हैं , मानो सुबह काम पर जाने से कुछ चिड़ियॉ वहा रखे दाना  पानी  लेने के दौरान वे सब आपस में जोर जोर जोर से बतिया  रही  है और  शाम को लौटनें पर जोर जोर से  चीं  चीं कर  एक दूसरें को दिन भर की रिपोर्ट दे रही होती हैं, जब कि कुछ चिड़िया भर वहा रखा दाना पानी खा कर तृप्ति से  एक ड़ाल से दूसरी पर झूल रही होती है. लेकिन अहम सवाल यह हैं कि धीरे धीरे  शहरों के कंक्रीट के घने बसेरों में ये चिरय्या क्यों अब नही दि खती, क्या हमने कंक्रीट के बसेरे बसा कर उन से उन के घरोंदे छीन लिये हैं. क्या इसी लियें गायब हो गई हैं गौरय्या ? मॉ, अब क्यों नही आती  हैं गौरय्या, क्या नाराज हैं हमारी चिरय्या
इस सब के बीच अक्सर कुछ बरस पहले  का  वाकया  अक्सर याद आता हैं.जब   दिल्ली में  बहुमंजिला ईमारत में  रहने वालें  एक एक परिचित के फ्लेट में बैठे हुयें यहा घर में आने वाली गौरैय्या, फाख्ता और गिलहरियों की बातें कर रहे थे और साथ ही  अब शहरों, कस्बों के घरों में कभी घर ऑगन में फुदककर चीं चीं करने  वाली और अब ,घरों से गायब हो गई गौरय्या की बात कर रहें थे, तो उन का   पॉच चार बरस का बेटा  कौतूहल भरे ऑखों से बोला" मम्मा अब घर में क्यों नहीं आती हैं गौरैय्या, क्या नाराज हैं गौरय्या ?  बच्चें ने घर से बाहर पार्क या और जगहों पर चिड़िया देखी होगी, लेकिन जाहिर हैं उस  के लियें हमारी बातें हैरानी भ्री होगी कि जिस गौरय्या के घरों में आने की बात बड़े लोग कर रहे हैं, आखिर अब वो हमारी घरों में क्यों नहीं आतीं,क्या वो नाराज हैं?
सच हैं गौरैयॉ, फाखतायें, गिलहरियॉ सब हम से दूर जा रही हैं.घर के ऑगन में फुदकने वाली और मस्ती से फिर्र फुर्र कर कभी यहा तो कभी वहा उड़्ने वाली गौरैय्या हम से नाराज हैं, हम ने उन के ठिकानोंको हड़प लिया हैं. लगभग दस हजार बरस से इंसान के साथ सुख चैन से रहने वाली गौरैय्या आखिर  क्यों हमारें घरों से गायब क्यों होती जा रही हैं.कारण हमारें खुद के रचे हुयें हैं, पक्के मकान, बदलती जीवनशैली और मोबाइल रेडिएशन से यह धीरे-धीरे विलुप्त जा रही है.
गौरतलब है कि 'विश्व गौरैया दिवस' की शुरुआत 2010 में भारत के जानें मानें कन्जर्वेशनिस्ट मोहम्मद इस्माईल दिलावर द्वारा स्थापित संस्था 'नेचर फॉरएवर'  और  "इको सिस्टम एक्शन फॉउ डेशन और अनेक राष्ट्रीय और अंतर राष्ट्रीय संगठनों ने मिल कर नामक एक पक्षी संरक्षण संगठन द्वारा की गई थी। इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य घटती गौरैया आबादी के प्रति जागरूकता बढ़ाना था। यह अभियान अब 50 से अधिक देशों में फैल चुका है। गौरैयों को संरक्षित करने और उनकी संख्या में गिरावट को रोकने का यह प्रयास धीरे-धीरे वैश्विक आंदोलन बन चुका है,  जिस के तहत 2005 से अब तक 35000 घोसले और 350000 पक्षियों के दाना खाने की सुविधा लगाई जा चुकी है. लगातार घट रही गौरैया की संख्या को अगर गंभीरता से नहीं लिया गया तो वह दिन दूर नहीं, जब गौरैया हमेशा के लिए दूर चली जाएगी
2012 में दिल्ली ने गौरैया को अपना राजकीय पक्षी घोषित किया। इसके बाद से इस दिवस को और अधिक मान्यता मिलने लगी। दुनिया भर के लोग गौरैयों को संरक्षित करने के लिए अलग-अलग तरीके अपना रहे हैं।पर हकीकत यही हैं कि कुछ बरस पहलें उस बच्चें ने जो सवाल पूछा था, सवाल यथावत कायम है. गौरय्या की संख्या लगातार कम होती जा रही हैं.लगातार घट रही गौरैया की संख्या को अगर गंभीरता से नहीं लिया गया तो वह दिन दूर नहीं, जब गौरैया हमेशा के लिए दूर चली जाएगी.रिपोर्ट्स के अनुसार गौरैया की संख्या में करीब 60 फीसदी तक कमी आ गई है.दिल्ली में तो गौरैया इस कदर दुर्लभ हो गई है कि  आसानी से ्ये हमें दिखती ही नहीं हैं., इसी चिंताजनक स्थति के मद्देंनजर ब्रिटेन की 'रॉयल सोसायटी ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ बर्डस' ने भारत से लेकर विश्व के विभिन्न हिस्सों में अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययनों के आधार पर गौरैया को "रेड लिस्ट" में डाला गया
दरअसल भारत में गौरैया केवल एक पक्षी नहीं, बल्कि साझा इतिहास और संस्कृति का प्रतीक भी रही है। इसे हिंदी में 'गौरैया', तमिल में 'कुरुवी' और उर्दू में 'चिरैया' कहा जाता है। वर्षों तक, गौरैयों की चहचहाहट घर-आंगनों को संगीतमय बनाती रही। खासकर गाँवों में, वे हमारी दिनचर्या का अहम हिस्सा थीं, लेकिन गौरैयों की महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, गौरैयों की संख्या में खतरनाक गिरावट आई है। इसके पीछे कई कारण हैं। पेट्रोल में लेड-मुक्त यौगिकों का उपयोग किया जा रहा है, जिससे वे कीड़े नष्ट हो जाते हैं जिन पर गौरैया निर्भर रहती हैं। शहरीकरण ने उनके प्राकृतिक आवास छीन लिए हैं। आधुनिक इमारतों में ऐसे स्थान नहीं होते जहाँ ये चिड़ियाँ घोंसले बना सकें। इसके अलावा, कृषि में कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग ने उनके भोजन की मात्रा को कम कर दिया है। कौओं और बिल्लियों की संख्या बढ़ने से भी गौरैयाओं के अस्तित्व पर संकट आया है। हरे-भरे क्षेत्रों की कमी और हमारी बदलती जीवनशैली भी इस संकट को बढ़ावा दे रही हैं।
आधिकारिक जानकारी के अनुसार एक और सराहनीय पहल चेन्नई के 'कूडुगल ट्रस्ट' द्वारा की गई है। इस संगठन ने स्कूल के बच्चों को गौरैया के लिए घोंसले बनाने के काम में जोड़ा। बच्चे लकड़ी के छोटे-छोटे घर बनाकर गौरैयाओं के लिए भोजन और आश्रय उपलब्ध करवा रहे हैं। 2020 से 2024 के बीच, इस ट्रस्ट ने 10,000 से अधिक घोंसले बनाए, जिससे गौरैयाओं की संख्या में वृद्धि हुई। इस प्रकार की पहल से युवा पीढ़ी को संरक्षण कार्यों से जोड़ने का महत्व स्पष्ट होता है।
कर्नाटक के मैसूरु में 'अर्ली बर्ड' अभियान भी एक महत्वपूर्ण पहल है, जो बच्चों को पक्षियों की दुनिया से परिचित कराता है। इस कार्यक्रम में एक पुस्तकालय, गतिविधि किट और गाँवों में जाकर पक्षियों को देखने के अभियान शामिल हैं। ऐसे शैक्षिक प्रयास बच्चों को प्रकृति और पक्षियों के महत्व को समझने में मदद कर रहे हैं।
गौरतलब है कि गौरेया 'पासेराडेई' परिवार की सदस्य है, लेकिन कुछ लोग इसे 'वीवर फिंच' परिवार की सदस्य मानते हैं. गौरेया अधिकतर झुंड में ही रहती है. भोजन तलाशने के लिए गौरेया का एक झुंड अधिकतर दो मील की दूरी तय करता है.
शहर कस्बों से गौरैय्या गायब हो रही हैं, लेकिन समय रहतें रयासों से हम अपनी छुटकी सी चिरैय्या को बचा सकेंगें.आईयें हम अपनी गौरैय्या को प्यार करें उसे अपने पास बुलानें के लियें उसे रहने बसने के लियें माहौल बानायें.छोटें से घरों के कोनें में,हरियाली के छोटे से टुकड़ें में भी अगर हम प्रयास करें तो  उस के  बसे रें के लियें जगह छोड़ सकतें हैं. घौंसलें की जगह खाली रखें,दाना पानी की व्यवस्था रखें और ऐसा निर्भर माहौल बनायें जहा वह आसानी से बस सकें. तब शायद कोई भी अबोध बालक गा सकेगा" चुन चुन करती आई चिड़ियॉ, घास का दाना लाई चिड़ियॉ" वी एन आई


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