काला मोतिया छीन सकता हैं ऑखों की रोशनी लेकिन समय से इलाज के बचाव संभव

By VNI India | Posted on 16th Apr 2024 | VNI स्पेशल
काला मोतिया

नई दिल्ली,15 मार्च ( सुनीलजैन/वीएनआई) डॉक्टर अगर किसी को ग्लूकोमा यानी काला मोतिया के घेरे में आने के बारें में खबरदार करें तो घबराने  से ज्यादा जरूरी हैं वह इस रोगस  के प्रकोप  से निबटने के लियें  सतर्क हो जायें. "ऑख की रोशनी के चोर" के नाम से जानें वाली बीमारी का अगर समय रहते पता नही चल पाता हैं और ईलाज नही हो पाता हैं,  तो ऑखों की रोशनी जा सकती हैं और फिर रोशनी आना असंभव हैं.आंखों के प्रति जरा सी भी लापरवाही  बड़ा नुकसान पहुंचा सकती है. चिकित्सकों के अनुसार  पिछले कुछ सालो में आंखों की गंभीर बीमारी काला मोतिया यानी ग्लूकोमा बड़ी संख्या में लोगों को अपना शिकार बना रही है. आजकल ये बीमारी उम्रदराज  लोगों पर ही नहीं, बल्कि कम उम्र के युवाओं  यहा तक कि बच्चों में भी देखने को मिल रही है. लेकिन, फिर भी इस बीमारी को लेकर लोगों के बीच जागरूकता कम है. भारत में लगभग इस वक्त एक करोड़  20 लाख लोग इस बीमारी से ग्रसित हैं जिस में से  .89 लाख लोग इस बीमारी के चलते ऑखों की रोशनी गंवा चुके हैं. भारत मे  नेत्रहीनता का  12.8 प्रतिशत इसी बीमारी से होता है मौटे तौर पर कहा जायें तो  इस की वजह हैं  आंखों पर दबाव बढ़ना, जिस तरह बीपी बढ़ने से शरीर को नुकसान होता है उसी तरह दबाव बढ़ने से आंखों को भी नुकसान होता है। इसे समय रहते नियंत्रित करना जरूरी है, दबाव के कारण आंखों के पीछे की नसें सूखने लगती हैं और उनके काम करने की क्षमता खत्म हो जाती है.

दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल के ग्लुकोमा विभाग के प्रमुख डॉ मानवदीप  सिंह के अनुसार  ऐसे में लोगों के बीच इस बीमारी को लेकर जागरूकता लाने के लिए हर साल 12 मार्च को वर्ल्ड ग्लूकोमा डे और वर्ल्ड ग्लूकोमा वीक मनाया जाता है. डॉ सिंह के अनुसार ग्लूकोमा आंखों की ऐसी बीमारी है, जो धीरे-धीरे आंखों की रोशनी छीन लेती है. इसे आम भाषा में काला मोतिया या आंखों की रोशनी का चोर" भी कहा जाता है. इस स्थिति में हमारी ऑप्टिक नर्व क्षतिग्रस्त हो जाती है और ऑप्टिक नर्व्स ही हमारे रेटिना को दिमाग से जोड़ती हैं. ऐसे में इनके  क्षतिग्रस्त हो जाने से दिमाग को संकेत मिलना बंद हो जाते हैं और दिखना बंद हो जाता है यानि  इस बीमारी के गंभीर हो जाने पर दृष्टि को वापस लाना असंभव हो जाता है. ऐसी स्थति से बचने के लियें जरूरी हैं कि लोगों को इस बीमारी के बारे में जागरूक किया जायें.

 नई दिल्ल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्वि्ज्ञान संस्थान के  राजेन्द्र प्रसाद नेत्र अस्पताल के ग्लुकोमा विभाग प्रमुख डॉ विनय अग्रवाल के अनुसार  भले ही  ग्लूकोमा का इलाज नहीं है लेकिन इससे बचाव करना बिल्कुल संभव है , जिस के लिये जरूरी हैं कि ओंखों की जॉच में अगर कोई लक्षण नजर आये  तो फौरन नियमित इलाज शुरू करवा दे.अधिकांश समय तक इसके कोई स्पष्ट लक्षण नहीं दिखते और धीरे-धीरे दिखना बंद हो जाता है. काला मोतिया और सफेद मोतिया दोनों में ही दृष्टि धीरे-धीरे कम होती है, लेकिन दोनों में एक अंतर है, सफेद मोतिया में ऑपरेशन के बाद दृष्टि वापस आ जाती है, लेकिन काला मोतिया के कारण जो नजर जाती है, वह लौटती नहीं है। इसका बड़ा कारण है काला मोतिया में आंखों की भीतरी नसें क्षतिग्रस्त हो जाती हैं यानी जो नसें आंखों को दिमाग से जोड़ती हैं, जिससे इंसान देख पाता है, वे पूरी तरह खराब हो जाती हैं.काला मोतिया होने का सबसे बड़ा कारण है आंखों का दबाव बढ़ना, जिस तरह रक्तचाप बढ़ने से शरीर को नुकसान होता है, उसी तरह दबाव बढ़ने से आंखों को भी नुकसान होता है. इसे समय रहते नियंत्रित करना जरूरी है। दबाव के कारण आंखों के पीछे की नसें सूखने लगती हैं और उनके कार्य करने की क्षमता खत्म हो जाती है। एक बार इन नसों के नष्ट होने के बाद उसे वापस नहीं लाया जा सकता,यानी जो नसें आंखों को दिमाग से जोड़ती हैं, जिससे इंसान देख पाता है, वे पूरी तरह खराब हो जाती हैं.  

 डॉ अग्रवाल के अनुसार  वह स्थति खासी दुखद होती हैं जब कि रोशनी चली जाने पर युवा, बुजुर्ग यहा तक कि छोटे छोटें  बच्चे इस बीमारी के चलतें ऑख की रोशनी चली जने पर अस्पताल पहुंचते हैं और ऐसे में चिकित्सक खुद को असहाय पाता हैं  क्योंकि वह स्थति लऐलाज की हो जाती हैं. जरूरत हैं इस बारे में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र मिल कर सम्मूहिक अभियान चलाये और संसाधन एकत्र कर इस बीमरी से ग्रस्त लोगों को नेत्र हीन होने से बचायें. उन्होंने बताया कि अस्पताल मे कई मर्तबा ऐसे  युवा,  प्रौढ , बुजुर्ग और बच्चे तक आते हैं जो संसधानों के अभाव में डॉक्टरों के  भविष्य में नेत्र हीनता  की स्थति के बारे मे समझायें जाने पर भी नियमित चेक अप के लिये नही आ पाते हैं इसी के चलते इस जागरूकता सप्ताह को ग्लुकोमा मुक्त संसार के लियें सभी के एक जुट होने का आहवान किया हैं ताकि पूरा समाज एकजुट हो कर इस संकट से निबट सकें.

  संस्थान में ग्लुकोमा विभाग के वरिष्ठ चिकित्सक डॉ रोहित सक्सेना के अनुसार आम स्थतियों में भी  अक्सर लोग इस बीमारी के लक्षणों को नजरदांज कर देते हैं मसलन,दबाव बढ़ने पर आंखों के चारों तरफ और सिर में दर्द महसूस होता है,रोशनी के चारों तरफ इंद्रधनुष दिखने लगता है।धीरे-धीरे देखने में भी परेशानी बढ़ने लगती है। अक्सर मरीज जब डॉक्टर के पास पहुंचता है, तो पता चलता है कि नजर जा चुकी होती है, यदि कभी आंखों में बहुत तेज दर्द महसूस होता है तो उसका मतलब है कि आंखों पर प्रेशर अचानक काफी बढ़ गया है.

कभी-कभी काला मोतिया बच्चों में भी देखा जाता है. आमतौर पर यह समस्या जन्मजात होती है. कुछ ही मामलों में बच्चों में काला मोतिया होने की आशंका रहती है हालांकि, बच्चों में काला मोतिया के मामले अपेक्षाकृत कम होते हैं. बच्चों में इसके लक्षणों की बात करें तो, उनकी आंखें बड़ी लगने लगती हैं लगातार आंसू  आते रहते हैं, रोशनी में उन्हें आंखें खोलने में दिक्कत होती है, वैसे अधिकतर काला मोतिया 40-45 वर्ष की उम्र के बाद ही होना शुरू होता है.

   डो विनय  के अनुसार अगर परिवार में किसी को काला मोतिया पहले हो चुका है, तो जोखिम बढ़ जाता है। ऐसे लोगों को सावधानी बरतनी चाहिए, साथ ही समय-समय पर जांच करा लेनी चाहिए,जैसे हम नियमित रूप से रक्तचाप की जांच कराते रहते हैं, उसी तरह दृष्टि और आंखों पर दबाव पड़ने की भी जांच वर्ष में एक बार जरूर करा लेनी चाहिए, यह इसलिए भी आवश्यक है कि कई बार आंखों पर बढ़ रहा दबाव हम महसूस नहीं कर पाते हैं और समस्या बढ़ती रहती है, जांच करा लेने से काला मोतिया जल्दी पकड़ में आ जाता है और सही समय पर सही उपचार मिल जाता है. दोनों डॉक्टर द्व्य कआ मानना हैं कि इलाज के दौरान ऑख मे डोक्टरो के निर्देश अनुसार समय से दवा जरूर डालें और नियमित रूप से दवा डालें. इस बीमारी  में   दवा डालने में ढील जीवन भर का पश्चाताप बन सकता हैं.

डॉ सिंह का सुझाव हैं कि 40 वर्ष की उम्र के बाद हर वर्ष कम से कम एक बार आंखों की जांच जरूर करानी चाहिये खास तौर पर मधुमेह और उच्च रक्त चाप के रोगियोंको नियमित जॉच कराना जरूरी हैं.डायबिटीज, हाइपरटेंशन की अवश्य जांच कराते रहें, क्योंकि इन सबका आंखों पर काफी असर पड़ता है,डायबिटीज में काला मोतिया होने की आशंका अपेक्षाकृत अधिक रहती है,लगातार स्क्रीन पर समय बिताने के बजाय ब्रेक लेना आवश्यक है,स्मार्टफोन या लैपटाप पर काम करते समय आसपास पर्याप्त रोशनी रखें, अंधेरे में काम न करें,हर आधे घंटे में पांच मिनट का ब्रेक लेकर दूर देखें, आंखों को थोड़ी राहत दें, हमारी आंखें नजदीक नहीं, दूर देखने के लिए बनी हैं,लगातार नजदीक में देखते रहने से आंखों पर जोर पड़ता है. डॉ सिंह का सुझाव हैं कि आंखों को ब्लिंक करते रहें यानी पलकों को झपकाते रहें, अन्यथा आंखों में ड्राइनेस बढ़ती है.

आंखों में ड्राइनेस बढ़ जाने पर जलन, खुजलाहट महसूस होती है अगर में आंखों में तकलीफ महसूस हो रही है, तो तुरंत नेत्र चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए। सतर्कता आवश्यक हैं,भोजन में विटामिन और पोषक तत्वों को शामिल करें, पर्याप्त व्यायाम और शारीरिक गतिविधियां करें. डायबिटीज, हाइपरटेंशन की अवश्य जांच कराते रहें, क्योंकि इन सबका आंखों पर काफी असर पड़ता है. और सब से जरूरी हैं कि  सरकार इस कार्यक्रम को सर्वोच्च प्राथमिकता से निबटने वाली बीमारियों की तरह ही निबटें  ताकि इस बीमारी के शिकार  लोगों को अंधत्व के अंधेरे में डूब जाने से रोका जा सकें. वी एन आई


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