पटना, 2 जुलाई (मनोज पाठक) घर-आंगन में चहकने-फुदकने वाली छोटी सी प्यारी चिड़िया 'गौरैया' की कमी तो सबको खलती होगी, लेकिन इस नन्ही जान को बचाने के लिए शायद ही कोई कारगर पहल करता होगा। मगर पटना के संजय कुमार पिछले करीब एक दशक से गौरैया का घर सजाते हैं। आज हाल यह है कि उनके और उनके पड़ोसियों की नींद गौरैयों की चहचहाहट से ही टूटती है।
पटना के कंकड़बाग के एक अपार्टमेंट में रहने वाले संजय कुमार सिन्हा भारतीय सूचना सेवा में कार्यरत हैं। उनके और उनकी पत्नी लीना की दिनचर्या गौरैयों को दाना-पानी देने से ही शुरू होती है।
चिड़ियों के संरक्षण के लिए कई वर्षो से कार्य कर रहे संजय कहते हैं, "10 वर्षो की तुलना में आज गौरैयों की संख्या में 60 से 70 प्रतिशत की कमी आई है। 'चीं चीं' बोलकर चहकने वाली गौरैया अब मुश्किल से दिखाई देती है।"
संजय और उनकी पत्नी पिछले एक दशक से न केवल चिड़ियों के लिए अपने घर में दाना-पानी की व्यवस्था करते हैं, बल्कि उन्हें रहने के लिए उनके वास (घोंसलों) का भी इंतजाम करते हैं। संजय के फ्लैट में दो दर्जन से अधिक लकड़ी या प्लाई के बनाए गए घोंसले हैं, जो विभिन्न खिड़कियों, रोशनदानों और बालकनी पर टंगे हैं, जिनमें पक्षियां अपना ठिकाना बनाए हुए हैं।
संजय बताते हैं कि इन पक्षियों में इंडियन रॉबिन और गौरैया सबसे अधिक हैं। गौरैयों को बचाने की मुहिम में जुटे संजय को बिहार सरकार द्वारा सम्मानित भी किया जा चुका है।
गौरैयों की घटती आबादी पर शोध में जुटे संजय ने आईएएनएस से कहा, "पहले हर घर-आंगन में सूप से अनाज फटका जाता था। फटकने के बाद गिरे अनाज को खाने गौरेया फुर्र से आती थी और फुर्र से उड़ जाती थी, लेकिन अब समय के साथ सबका रहन-सहन बदल गया है। मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली तरंगों से भी गौरैयों की प्रजनन क्षमता पर असर पड़ा है।"
संजय मानते हैं कि गौरैयों को मनुष्य के बीच ही रहना पसंद है, लेकिन वे मानव निर्मित घोंसलों में रहना पसंद नहीं करती थीं। समय ने गौरैयों की सोच को भी बदल दिया है। हाल के दिनों में शहरों में पेड़ों की कटाई और पेड़ों की संख्या में कमी के कारण गौरैयों के व्यवहार में भी परिवर्तन देखा जा रहा है, अब ये मानव निर्मित घोंसलों में भी आनंद से रह रही हैं।
संजय अपने इस अभियान में वर्ष 1997 से ही लगे हुए हैं। उन्होंने शुरुआत घर के बाहर पक्षियों के लिए दाना-पानी रखकर की थी, मगर बाद में इसमें उन्हें मजा आने लगा। अब तो यह उनकी दिनचर्या बन गई है। वह सोशल मीडिया के जरिए भी गौरैया को बचाने के लिए लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाते हैं।
संजय आईएएनएस से कहते हैं कि गर्मियों में पक्षियों को सबसे ज्यादा परेशानी होती है। अगर सभी लोग अपने घरों के आंगन में, बालकनी में पानी रख दें तो ये पंछी प्यासे नहीं रहेंगे।
उल्लेखनीय है कि बिहार सरकार ने भी गौरैया को संरक्षण देने को लेकर पहल शुरू करते हुए जनवरी, 2013 में गौरैया को राजकीय पक्षी को घोषित किया था। लोगों को जागरूक किया जा रहा है, ताकि उनके घर-आंगन-बालकनी में इसकी चहचहाहट दोबारा गूंजने लगे।
सरकारी और गैरसरकारी संस्थान की ओर से लोगों को गौरैया बॉक्स और कृत्रिम घोंसला दिया जाता है। अब लोग भी जागरूक हुए हैं, उनके घरों में गौरैया बॉक्स और कृत्रिम घोंसला नजर आने लगा है।
बकौल संजय, गौरैयों का सबसे पसंदीदा खाना खुद्दी (चावल का टुकड़ा) है, वैसे ये धान को भी छीलकर खाना जानती हैं।
गौरैया एक छोटी सी घरेलू पक्षी है। यह यूरोप और एशिया में सामान्य रूप से पाई जाती है। नर गौरैया की पहचान उसके गले के पास काले धब्बे से किया जाता है, जबकि मादा का सिर और गला भूरे रंग के नहीं होते। --आईएएनएस