उत्तरप्रदेश के चुनाव में भले ही और कुछ नया न दिख रहा हो लेकिन भाषा जरूर अचानक बदल गई है. भाषा विवेक पर सभ्य समाज इशारे जरूर कर रहा है लेकिन यह पता नहीं चल रहा है कि आखिर ये बदलाव आया किस रूप में है. यह बदलाव भाषा का है या शैली का है? या साहित्यसुलभ रस और अलंकार के इस्तेमाल में कोई बदलाव आ गया है. सामान्य अनुभव से देखें तो तार्किकता के लिए जरूरी शांत रस राजनीतिक भाषणों में लगभग गायब ही हो चला है. हो सकता है इसीलिए जनता के लिए जरूरी मुद्दों पर बात की बजाए लोकलुभावन चुटकुले और तंज के लहजे़ ज्यादा देखने को मिल रहे हैं.
दूसरे की छवि बिगाड़ने के नए भाषाई यंत्र : चुनावी भाषणों में अचानक यह दिखने लगा है कि अपने प्रतिद्वंद्वी की छवि को किस तरह मलिन किया जाए और अपनी उपलब्धियों अपने इतिहास का किस तरह महिमामंडन किया जाए. कुछ साल पहले तक बड़ा ख्याल रखा जाता था कि दूसरे की छवि बिगाड़ने में कहीं क्रूरता न दिखने लगे. घिनौनेपन से बचाव किया जाता था. यह ख्याल कोई आदर्श या नैतिकता के लिए नहीं बल्कि इसलिए रखा जाता था कि क्रूर भाषा का इस्तेमाल करने वाले की खुद की छवि भी क्रूर बनने का जोखिम होता है. माना जाता है कि भारतीय मानस को अति बिल्कुल पसंद नहीं. लेकिन अचानक पता नही क्या हुआ कि एक दूसरे को घिनौना, भयानक, देशद्रोही चित्रित करने के लिए खुलेआम आतंकवादी कहने में अति होती चली गई. इस सिलसिले में अभी इतना जरूर है कि एक-दूसरे को आतंकी करार देने में उपमा की बजाए रूपक अलंकार का इस्तेमाल होने लगा. एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि राजनीति में गिरावट अचानक नहीं आती बल्कि गिरावट की तरफ भी फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाए जाते हैं. इसीलिए पता नहीं चल पाता कि गिरावट का प्रस्थानबिंदु क्या है. पूरी संभावना है कि भारतीय राजनीति में इस गिरावट पर निकट भविष्य में जरूर ही शोध अध्ययन हो रहे होंगे. विद्वान लोग इस शोध परिकल्पना को भी जांचेंगे कि राजनीति को पीछे धकेलकर कोई दूसरा क्षेत्र तो अपनी जगह नहीं बना रहा है.
हास्य रस हद से ज़्यादा: अपने भाषण को रोचक बनाने में हास्य व्यंग्य का इस्तेमाल श्रोताओं को रिझाने के लिए होता है. भारतीय राजनीतिक भाषणों में पहले हास्य और व्यंग्य में अंतर दिखता था लेकिन अब व्यंग्य की गंभीरता को कम किया जाकर हास्य को ज्यादा बढ़ाने से वह ठिठोली का रूप लेने लगा. कुछ पहले तक बड़े नेताओं के भाषण लिखने वाले लेखकों को हास्य और व्यंग्य के तत्व बहुत आकर्षित करते थे. लेकिन गंभीर प्रकृति के भाषण लेखक यह ध्यान रखते थे कि हास्य फूहड़ न बन जाए. जिसका मजाक उड़ाया जाना है] जनता में उसके प्रत्यक्षीकरण या उसकी स्वीकार्यता का भी खासतौर पर ध्यान रखा जाता था. लेकिन दूसरे दल के शीर्ष नेताओं की खिल्ली उड़ाने के लिए गली कूचे के स्तर के नेताओं के जरिए दूसरे दल के बड़े नेताओं की खिल्ली उड़वाने का चलन इतना बढ़ गया है कि भाषण रोचक बनने की बजाए अरुचिपूर्ण बनने लगा है. इतना ही नहीं, मजेदारी के चक्कर में बड़े स्तर के नेताओं में भी खिल्ली उड़ाने की प्रवृत्ति आश्चर्यजनक रूप से बढ़ चली है.
भीड़ से 'हूंका' भरवाने की शैली : चुनावी भाषणों में यह बिल्कुल नई खोज है। इस बारे में अभी निश्चित रूप् से नहीं कहा जा सकता कि इसका क्या प्रभाव पड़ता है। लेकिन जब बड़े नेताओं के भाषण टीवी के जरिए पूरे देश में प्रसारित होने का प्रबंधन भी होने लगा हो तो इसका दृश्य प्रभाव कई गुना बढ़ जाना स्वाभाविक है। उपाय के रूप में यह यंत्र सुरक्षित नहीं माना जाता था लेकिन जब से चुनाव प्रबंधन विशेषज्ञों ने भीड़ प्रंबधन का भी ठेके लेने शुरू कर दिए हैं तब से भाषण के दौरान श्रोताओं से सवाल पूछते हुए उनसे हांमी भरवाना यानी हूंका भरवाना सुरक्षित हो गया है। अब इस उपाय में कोई जोखिम या खामी दिखती है तो यही कि इसके ज्यादा इस्तेमाल से कहीं नकलीपन न दिखने लगे। और इसके ज्यादा इस्तेमाल से एकरसता की स्थिति पैदा हो जाना स्वाभाविक है ही।
टीवी पर चुनावी बहसों का नया मिज़ाज : चुनावी प्रचार के नए रूपों में टीवी की बहसें हद दर्जे की आक्रामक होती जा रही हैं. अब तक इनमें जो तार्किकता दिखती थी वह रटी-रटाई बात को बार-बार दोहराने में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगी. ये बहसें आधुनिक भारत के शिक्षित प्रशिक्षित युवा बड़े चाव से सुनते थे. लेकिन अब वे सुनने की बजाए देखकर मज़े लेने लगे हैं. अपनी प्रकृति से ही गंभीर और राजनीतिक संवाद में पटु कुछ नेता टीवी पर बहसों के बीच एंकरों के सामने टिक ही नहीं पा रहे हैं. लगता है जवाब को रोकने का यह नया चलन है. सिर्फ सवाल के जरिए ही माहौल को साध लेने की यह प्रवृत्ति राजनीतिक संवाद की बची-खुची संभावना को क्या बिल्कुल ही खत्म नहीं कर देगी? मीडिया की बदलती भाषा शैली और मिज़ाज के कारण ही मीडिया का साधारण ग्राहक भी मीडिया पर पक्षपात का आरोप लगाने लगा है.
(सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...)
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NDTV