नई दिल्ली, 16 मार्च, (शोभना जैन/वीएनआई) मौजूदा चुनाव में पाकिस्तान वैसे ही एक बड़ा मुद्दा बना हुआ था, बालाकोट, सर्जिकल स्ट्राईक, पुलवामा शहीदों की शहादत जैसे संवेदनशील मुद्दे चुनावी मुद्दे बन चुके हैं. इन्ही परिस्थतियों मे पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान के एक बयान से भारत के चुनावी ्माहौल में जैसे भूचाल आ गया. चुनाव के पहले चरण की पूर्व संध्या पर इस सप्ताह इमरान खान द्वारा राजनयिक मर्यादाओं को दर किनार कर अपने पड़ोसी देश भारत में चुनाव के वक्त एक ऐसा मुद्दा उछाल दिया, जिस के खास राजनैतिक मायने हैं, आखिर इस बयान का क्या मकसद हो सकता है,्खास तौर पर जबकि इस से कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने यह बयान दे कर पाकिस्तान की बेचारगी विश्व बिरादरी मे जताने की कौशिश कर चुके हैं कि भारत 16-20 अप्रैल के बीच पाकिस्तान पर हमला करने की तैयारी कर चुका हैं.ऐसे में इमरान का अचानक चुनावों के बाद ्मोदी सरकार बनने के बाद पाकिस्तान के साथ अच्छे रिश्तें बनने की बात पर सवाल उठना लाजिमी हैं.
जैसा कि होना ही था भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह चुनाव में राष्ट्र्वाद को एक प्रमुख मुद्दा बना कर उसे पाकिस्तान से जोड़ रखा था,उसी के जबाव मे विपक्ष के लिये भी इमरान का यह बयान जबावी वार करने का हथियार बन गया. प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा नेतृत्व विपक्ष पर पाकिस्तान की जबान बोलने का आरोप लगाते रहे है. इमरान के इस बयान पर कांग्रेस सहित विपक्ष ने भाजपा पर कड़े हमले किये . गौरतलब हैं कि इमरान खान ने कहा था कि अगर पीएम मोदी लोकसभा चुनाव के बाद एक बार फिर पीएम बनते हैं तो दोनों देशों के बीच बातचीत का रास्ता एक बार फिर खुल सकता है. विदेशी पत्रकारों के साथ बातचीत में इमरान खान ने कहा कि अगर भाजपा सत्ता में आई तो कश्मीर मुद्दे का कोई हल निकल सकता है. 2018 के अगस्त में प्रधानमंत्री बने इमरान खान ने इस ताजा बयान में यह भी कहा कि मोदी के शासन में कश्मीर ही नहीं, पूरे भारत में मुसलमान बड़े पैमाने पर अलगाव महसूस कर रहे हैं इमरान खान ने यह भी कहा कि अगर भारत में अगर अगली सरकार विपक्षी पार्टी कांग्रेस की अगुवाई में बनती है तो वह राइट विंग वाली पार्टी बीजेपी से डर कर कश्मीर के मुद्दे को पाकिस्तान के साथ बातचीत के जरिए हल करने से पीछे हट सकती हैं.
सत्ता विपक्ष के आरोपों प्रत्यारोपों से अलग हट कर इमरान के अचानक उपजे इस मोदी प्रेम को समझे तो जाहिर हैं कि यह बयान पाकिस्तान की घरेलू राजनीति में चल रहे घमासान में बचाव के हथकंडे बतौर और अंतर राष्ट्रीय बिरादरी में अपनी नेक नीयती दर्शाने का ठप्पा लगवाने की मंशा के साथ ही इमरान सरकार पर हावी सेना के सोच से जुड़ा हैं. पाकिस्तान की अंदरूनी राजनीति इस समय बेहद उथल पुथल के दौर से गुजर रही हैं.देश की आर्थिक हालत बेहद खस्ता है. लगातार ऋण के जाल में फंसते जा रहे पाकिस्तान पर अंतर राष्ट्रीय मुद्रा को्ष की कड़ी निगरानी ्चल रही हैं.अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कार्यबल, आतंक से निबटने के पाकिस्तान द्वारा कारगर कदम नही उठाये जाने को ले कर उस पर शिकंजा कसे हुए है. आगामी जून में इस कार्यबल की समीक्षा बैठक होने वाली हैं जिस मे इस बारे में विचार किया जायेगा कि अगर उस ने कार्यवाही नही की तो उसे ्बल की ग्रे लिस्ट से ब्लेक लिस्ट में डाला जा सक्ता हैं, यानि उसे मिलने वाली आर्थिक सहायता पर बुरा असर पड़ेगा. पाकिस्तान के विदेश मंत्री जल्द ही पैसा जुटाने अमरीका जाने वाले हैं.ऐसे में निश्चय ही इस तरह का बयान आर्थिक मदद देने वाले अमरीका, योरोपीय यूनियन और खाड़ी देशों को यह दिखाने के लिये भी माना जा सकता हैं कि वह आतंक के खिलाफ कार्यवाही करने के साथ ही भारत से बातचीत का इच्छुक हैं.गौरतलब है कि दोनों देशों के बीच समग्र वार्ता 2008 से ढप्प हैं. भारत का लगाता्र यही कहना हैं कि सीमा पार से आतंक बंद होने तक वार्ता बे मायने है.पाकिस्तान आतंक रोकने के लिये कारगर कदम उठाये.पाकिस्तान की तरफ से सीमापार आतंकी गतिविधियॉ चलाने/ इन्हें प्रश्रय देना बदस्तूर जारी है, लेकिन विश्व बिरादरी के सम्मुख अपनी छवि आतंक से निबटने वाले देश के रूप में प्रदर्शित करने के साथ बातचीत की पेशकश रह रह कर वह दोहराता रहा हैं.
अब बात बयान से जुड़े पाक सेना ्कनेक्शन ्की, वहा सेना का इमरान खान पर दबाव जग जाहिर हैं. पाक सेना भारत को खतरा बता कर देश में लगातार दबाव बनाये रखना चाहती है, ऐसे मे उसे लगता हैं कि चुनाव के बाद मोदी सरकार का दोबारा सत्ता में आना उस के लिये सही ही रहेगा. ऐसे में जबकि कॉग्रेस की पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार पाकिस्तान के साथ फूंक फूंक कर कदम उठाती रही जब कि दूसरी तरफ अटल बिहारी वाजपेयी और अब मोदी सरकार कदम आगे बठाती रही हैं हालांकि उन मे उसे सफलता नही मिली. श्री वाजपेयी 1998 में लाहौर बस यात्रा और 2004 मे इस्लामाबाद शिखर बैठक में हिस्सा लेने पाकिस्तान गये लेकिन 1999 मे वाजपेयी लाहौर बस यात्रा के बाद ्करगिल हुआ, फिर 2004 मे वाजपेयी का जनरल मुशर्रफ के साथ आगरा शिखर सम्मेलन हुआ वह भी असफल रहा. पी एम मोदी ने भी चुनाव के बाद मई 2014 में दक्षेस नेताओं के साथ पाक पीएम नवाज शरीफ को अपने शपथ ग्रहण समारोह में बुलाया, एक और कदम बढते हुए मोदी दिसंबर 2015 में नवाज शरीफ के पारिवारिक उत्सव में हिस्सा लेने ्पाकिस्तान गये लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात. पठान कोट, उरी, पुलवामा मे पाक आतंक की वही दुर्दांत कहानी दोहरायी जाती रही, सीमा पर युद्ध विराम का उल्लघंन बढता गया, सीमा पार आतंकी गतिविधियॉ बदस्तूर जारी है, सीमा पर तनाव जारी है. देखना होगा कि चुनाव के बाद नयी सरकार इमरान के इस बयान को किस नजरिये से देखेगी और खुद इमरान का तब क्या रूख रहेगा.
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