रायपुर, 3 जून (वीएनआई) । छत्तीसगढ़ में भी कभी आउटडोर थियेटर यानी चलता-फिरता सिनेमाघर का जलवा हुआ करता था। लेकिन अत्याधुनिक कमी और घरों-घर टीवी और बड़-बड़े सिनेमाघरों के आ जाने से इनका अस्तित्व खत्म हो गया है।लेकिन अब यहीं चलता फिरता सिनेमा दुनियाभर में अत्याधुनिक तरीके से आउटडोर सिनेमा टूरिंग टॉकीज के रूप में इसका चलन बढ़ता जा रहा है, लोग बंद थियेटर के बजाय खुले थियेटर में फिल्में देखना पसंद कर रहे हैं। उम्मीद की जा रही है छत्तीसगढ़ का पुराना चलता फिरता सिनेमा नई तकनीक के माध्यम से छत्तीसगढ़ में टूरिंग टॉकीज के जरिये दोबारा फिर से लौट आये।
इस तरह के टॉकीजों की मांग छत्तीसगढ़ राज्य में लगने वाले पारंपारिक मेले में काफी होती थी। छत्तीसगढ़ में मुख्यत: राजिम, पांडुका, बलौदाबाजार, शिबरीनारायण, खैरागढ़ सहित नारायणपुर जैसे सुदूर आदिवासी इलाकों और रायगढ़, बिलासपुर, रतनपुर जैसे क्षेत्रों में पर्व और त्योहारों के समय इनकी खासी मांग होती थी।
छत्तीसगढ़ में टूरिंग टॉकीज का इतिहास काफी पुराना है। 1896 में ग्रेट इंडियन वाईस्कोप कंपनी बनाकर टूरिंग टॉकीज की स्थापना की गई थी। उस समय मुंबई से मशीन खरीदकर छग के लोगों का मनोरंजन शुरू किया गया था। यानी 119 साल से छग में फिल्मों का प्रदर्शन जारी है। यह बात और है कि टूरिंग टॉकीज ओपन थियेटर की जगह अब मॉल ने लेना शुरू कर दिया है।
टूरिंग टॉकीज में फिल्में देख चुके कई बड़े-बजुर्गो ने कुछ खास बातें बताईं। 65 वर्षीय कृष्णा ने बताया कि बरसात के चार महीनों को छोड़कर बाकी दिनों में टूरिंग टॉकीज में लोगों की भीड़ काफी जुटती थी। लोग अपने साथ बैठने के लिए दरी, बोरा, चटाई, चादर लेकर आते थे। इसके अलावा अलग से घेरा लगाकर उस जमाने में चलने वाले लोहे की कुर्सी की भी व्यवस्था बैठने के लिए की गई थी। जमीन पर चारों तरफ से बांस-बल्लियों के सहारे घेरकर बाऊंड्रीवाल बनाकर बीच में पर्दे बनाकर उस पर फिल्म का प्रसारण किया जाता था। उस जमाने में लोगों की काफी भीड़ इकट्ठा होती थी, क्योंकि मनोरंजन का कोई स्थायी साधन नहीं था। लोग बैलगाड़ियों और सायकल में फिल्म देखने आते थे। एक-दो नहीं, बल्कि गांवों के सैकड़ों लोग ग्रुप बनाकर फिल्म देखने आते थे, ताकि वापसी के समय उन्हें दिक्कत न हो।
राजिम में कई सालों से मुकेश टॉकीज के नाम से टूरिंग टॉकीज का संचालन करने वाले ओमप्रकाश गुप्ता ने विजन न्यूज से चर्चा में इनसे जुड़ी कुछ और बातें बताईं। उन्होंने बताया कि फिल्मों का प्रसारण दो शो में किया जाता था- सुबह 10 बजे से 1 बजे तक और शाम 7 से 10 बजे तक। गुप्ता का कहना है कि आजकल लोग घर बैठ टीवी देख लेते हैं। बड़े-बड़े थियेटर हैं, मल्टीप्लेक्स हैं, इसलिए टूरिंग टॉकीज खत्म हो चले हैं। उन्होंने कहा कि अब भी राजिम मेला में इस टॉकीज में फिल्में दिखाई जाती हैं। उन्होंने बताया कि टॉकीज 1978 में शुरू किया गया था। इसका संचालन उनके पिता शिवनारायण गुप्ता किया करते थे। बरसात के समय में कुछ दिक्कतें होती थीं, बाकी गर्मी और ठंड में टॉकीज में काफी भीड़ होती थी। उस दौर की फिल्मों \'नदिया के पार\', \'हाथी मेरे साथी\', \'आराधना\', \'वो सात दिन\' जैसी कई फिल्मों ने तो रिकॉर्ड तोड़ भीड़ जुटाया था।
वहीं टूरिंग टॉकीज में फिल्म देख चुके देवेंद्र, लक्ष्मण, संतोष, रवि, गोवर्धन जैसे कई लोगों ने बताया कि घर के काम निपटाकर आराम से टूरिंग टॉकीज में फिल्में देखने का मजा ही कुछ और था। टिकट कटाओ और अंदर जाओ, पहले जाओ तो बढ़िया सीट पाओ। उन्होंने बताया कि आजकल आरामदायक कुर्सी और एयरकंडीशंड टॉकीजों में भी वह मजा नहीं आता। इन लोगों का कहना था कि घर से डिब्बाभर खाना, दरी-चटाई लेकर टॉकीज में फिल्म देखने जाते थे। लेकिन आज टॉकीज बंद हो गया है और महंगाई के चलते मनोरंजन भी आम लोगों से दूर होता जा रहा है।
बरसात के दिनों की बात की जाये तो कुछ और लोगों से चर्चा में यह बात भी सामने आई कि बरसात में यदि बारिश के चलते फिल्म का प्रसारण नहीं हो पाता था, तो बकायदा हाफ टिकट देखकर पैसे वापस कर दिए जाते थे। कई लोगों का कहना था कि कई फिल्मों के लिए तो टॉकीज के बाहर बैलगाड़ियों की लाइन लगी रहती थी। लोग रात को फिल्म देखते और सुबह-सुबह सबेरे संगम स्थल पर स्नान कर वापस घर लौट जाते थे। लेकिन अब चाहे शहर हो या गांव भाग-दौड़ बढ़ गई है। वहीं घरों-घर लाइट और टीवी के चलते टूरिंग टॉकीज पूरे छत्तीसगढ़ में लगभग बंद हो गया है।