एक फौजी की पत्नी
हाल ही में एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी की पत्नी द्वारा एक जूनियर की पत्नी को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने का वाकया मीडिया में प्रमुखता से छाया रहा। और जैसा कि इन दिनों चलन बन चुका है, सोशल मीडिया पर इस खबर की भी खूब कांट-छांट हुई। सैन्य अधिकारियों की पत्नियों के बीच बनाए गए व्हाट्सएप, फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया ग्रुप्स में इस खबर को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं रहीं। लेकिन जिस अंदाज में इस अपवाद जैसी घटना को प्रचारित-प्रसारित किया गया, उससे हर किसी को जैसे रक्षा बलों की खराब छवि गढ़ने का अधिकार मिल गया हो। और इससे हममें से अधिकांश लोगों को शर्मिदगी झेलनी पड़ी। गलत बातों को जोड़ देने से वह सही नहीं हो जातीं। दो भिन्न परिस्थितियों में घटी असहिष्णुता या हिंसा की घटनाओं के जरिए एक-दूसरे को सही नहीं ठहराया जा सकता। मैं कॉर्पोरेट जगत या निजी क्षेत्र की ऐसी अनेक घटनाएं गिना सकती हूं, जिसमें किसी वरिष्ठ अधिकारी की पत्नी किसी जूनियर कर्मचारी की पत्नी पर धाक जमाती हैं, लेकिन मैं ऐसा नहीं करूंगी। कारण वही साधारण सा, दो गलत बातें मिलकर सही नहीं हो जातीं।
यह सब कहने के बावजूद मुझे और मेरी जैसी अन्य महिलाओं को जिस चीज ने सबसे अधिक परेशान किया, वह इस घटना को इस अंदाज में पेश करना रहा, जिसके चलते पूरे सैन्य समुदाय की नकारात्मक छवि गढ़ दी गई। समुदाय से यहां मेरा मतलब विशेष तौर पर सैन्य अधिकारियों की पत्नियों से है। छह साल पहले जब मेरा विवाह हुआ और एक सैनिक की पत्नी बनी, तो मेरे दिमाग में फौजी की पत्नी को लेकर घिसा-पिटा रूप मौजूद था। एक ऐसी महिला जो शिफॉन की साड़ी पर मोतियों की माला पहनती है और पार्टियां करती है। यहां तक कि मेरी एक सहेली ने मेरा नाम ही किटी पार्टी रख दिया।
दिल्ली में अपनी पत्रकारिता की नौकरी छोड़कर मैं अपने फौजी पति के साथ एक दूसरी श्रेणी के शहर में रहने चली आई थी। मेरे दिमाग में तब यह चलता रहा था कि यहां मैं क्या अन्य लोगों से संपर्क बनाए रख पाऊंगी या विभिन्न विषयों पर बहस कर पाऊंगी, जिससे मेरे दिमाग को खुराक मिलती है। निश्चित तौर पर मैं ऐसा कर पाई। इस शहर में एक से बढ़कर एक पेशेवर महिलाएं मिलीं, जिनमें डॉक्टर, इंजीनियर, मैनेजमेंट गुरु, आर्किटेक्ट, मनोचिकित्सक, शिक्षाविद शामिल थीं। हर दिन मैं किसी न किसी बेहद प्रतिभावान महिला से मिलती। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रही तरक्की के चलते महिलाओं को घर बैठे काम करने का अवसर मिलने लगा था। कुछ महिलाएं जहां अपनी योग्यता के अनुरूप नौकरियां हासिल करने में सफल रही थीं, वहीं कुछ नजदीकी स्कूलों में शिक्षिका हो गईं।
लेकिन, इन महिलाओं के साथ मेरे संबंधों को तब गहराई मिली, जब मेरे पति ड्यूटी के लिए घर से दूर चले गए। अब अक्सर वह बाहर ही रहते या अचानक उन्हें बाहर जाना पड़ जाता। हम शाम में साथ फिल्म देखने जाने की सोच रहे होते और शाम में मैसेज मिलता कि वह कुछ दिनों के बाद लौटेंगे। टेलीविजन और सोशल मीडिया पर राष्ट्रवाद की बहसों से दूर हम सैनिकों की पत्नियां एक-दूसरे के साथ समय बितातीं और हमारे पति बिना कुछ कहे बेहद जोखिम भरी परिस्थितियों में अपनी ड्यूटी निभा रहे होते। लेकिन हमारी जिंदगियां अपने ढर्रे पर चल रही होतीं, बच्चे स्कूल जा रहे होते, घर के लिए खरीदारी करनी होती, कार में ईंधन भराना होता, कुत्ते को टहलाना रहता। मुझे वह दिन याद है जब मैं और मेरी एक साल की बेटी एक साथ बीमार पड़ गए। मेरे पति ड्यूटी पर थे और मैं इस हालत में भी नहीं थी कि कार चलाकर डॉक्टर के पास तक जा सकूं। मेरी हिम्मत जवाब दे चुकी थी, तभी दो सहायकों ने घर की घंटी बजाई, मेरी बेटी को उठाया और हमें डॉक्टर के पास ले गए। बाद में मेरे पति के कमांडर की पत्नी मेरी बेटी के लिए उपहार लेकर मेरे घर यह देखने आईं कि हमें किसी और चीज की तो जरूरत नहीं है। अन्य सैनिकों की पत्नियां बारी-बारी कर हमारे घर आती रहीं, ताकि वे मेरे पति की वापसी तक हमारा कुशल-क्षेम सुनिश्चित कर सकें। यही एक फौजी का जीवन है।
मुझे हैरानी होगी अगर कोई इस बात पर हैरानी जताता है कि जब हमारे सैनिक सीमा पर देश की रक्षा कर रहे होते हैं, तब उनके घरों की देखभाल कौन करता है? विशेषाधिकारों की भी अपनी कीमत होती है। लेकिन हम शिकायत नहीं करते। वास्तव में अधिकांश कल्याणकारी बैठकों में इस बात पर ही जोर दिया जाता है कि महिलाओं को कैसे अधिक से अधिक जागरूक और आत्मनिर्भर बनाया जाए, उन्हें गाड़ी चलाना सिखाया जाए, ऑनलाइन पाठ्यक्रमों के लिए कैसे आवेदन किया जाए और किसी के स्वास्थ्य की देखभाल कैसे की जाए। यह पूरी समर्थन प्रणाली इसीलिए है, ताकि सीमा पर जवान पूरी एकनिष्ठता से अपनी ड्यूटी निभा सकें। और इस तरह की एकाध गिनी-चुनी घटनाएं एकबार में ही इन सब पर पानी फेर सकती हैं। (लेखिका के पति रक्षा बल में सेवारत हैं तथा लेखिका अपनी पहचान उजागर नहीं करना चाहतीं)--आईएएनएस
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