आजादी के 77 वर्ष बाद भी यानि नवम्बर 2024 तक भी कोई महिला भारत की प्रधान न्यायधीश नही बन पायेगी

By Shobhna Jain | Posted on 15th Jun 2016 | VNI स्पेशल
altimg
नई दिल्ली, 15 जून(शोभनाजैन/वीएनआई) आजादी के 77 वर्ष बाद यानि नवम्बर 2024 तक भी कोई महिला भारत के उच्चतम न्यायालय मे प्रधान न्यायधीश नहीं बन पायेगी. उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता तथा महिला,बाल कानूनी अधिकारो के प्रखर लेखक व जेंडर जस्टिस मुद्दे से सक्रिय रूप से जुड़े श्री अरविंद जैन ने वीएनआई के साथ एक विशेष साक्षातकार मे बताया कि गणतंत्र के विगत 66 सालों में,अभी तक सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश की कुर्सी तक कोई भी महिला नहीं पहुँच पाई या ऐसी परिस्थतिया उत्पन्न हुई कि नही आ सकी. वर्तमान स्थिति के अनुसार नवम्बर 2024 तक, कोई महिला मुख्य न्यायधीश नहीं बनेगी या नहीं बन सकती.श्री जैन बताते है यही नही आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि इन 66 सालों में भारत के कानून मंत्री ( श्री भीम राव अम्बेडकर से लेकर श्री शिवानन्द गौडा तक), राष्ट्रीय विधि आयोग और राष्ट्रीय मानवाधीकार आयोग के अध्यक्ष के पद पर भी, कोई महिला नही नियुक्त हुई भारत के ‘ अटॉर्नी जनरल’ या ‘सोलिसिटर जनरल’ के पद पर भी यही स्थति रही अलबत्ता कुछ समय पहले सुश्री इंदिरा जयसिंह 'अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल’ अवश्य बन सकी. श्री जैन ने बताया कि वकीलों की अपनी संस्थाओं में भी महिलाये सर्वोच्च कुर्सी पर नही आ पाई है. बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया के अभी तक सभी अध्यक्ष पुरूष अधिवक्ता ही रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ही नहीं, दिल्ली हाई कोर्ट बार एसोसिएशन, दिल्ली बार एसोसिएशन (तीस हजारी कोर्ट), नई दिल्ली बार एसोसिएशन (पाटियाला हाउस), रोहिणी बार एसोसिएशन, शाहदरा बार एसोसिएशन, साकेत बार एसोसिएशन और द्वारका बार एसोसिएशन तक के अध्यक्ष और महामंत्री भी पुरुष ही चुने जाते रहे हैं.श्री जैन के अनुसार अपवाद के तौर पर एक-दो बार स्त्रियां, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की महामंत्री और नई दिल्ली बार एसोसिएशन (पाटियाला हाउस) के अध्यक्ष पद का चुनाव जरूर जीती हैं, लेकिन सफर्तो बहुत लंबा है. संविधान बनने के लगभग 40 साल बाद न्यायमूर्ति फातिमा बीवी को (6,अक्टूबर,1989) सर्वोच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायधीश बनाया गया था, जो 1992 में रिटायर हो गई. इसके बाद ्न्यायमूर्ति सुजाता वी. मनोहर (1994), न्यायमूर्ति रुमा पाल (2000), न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा (2010), ्न्याय मूर्ति रंजना प्रकाश देसाई (2011) और न्याय मूर्ति श्रीमती आर. बानूमथि (2014) सर्वोच्च न्यायालय की न्यायधीश बनी. कुल मिला कर 66 सालों में 219 (41 रिटायर्ड मुख्य न्यायधीश,150 रिटायर्ड न्यायधीश और 28 वर्तमान न्यायधीश) में से 6 (2.7%) महिला न्यायधीश रही. श्री जैन ने बताया कि एक बार अवश्य सन 2000 मे महिला प्रधान न्यायाधीश बनने की स्थति बनी जरूर थी लेकिन तब ऐ्सी स्थति्यॉ बनी कि तब भी वह अवसर आते आते रह गया. वर्ष 2000 मे जब सुप्रीम कोर्ट का स्वर्ण जयंती वर्ष मनाया जा रहा था और उसी साल 29 जनवरी को मुख्य न्यायधीश ए.एस.आनंद द्वारा, तीन नए न्यायमूर्तियों को शपथ दिलाई जानी थी. सब कुछ तो तय था, मगर शपथ दिलाने की तारीख 29 जनवरी की बजाय 28 जनवरी कर दी गई.वैसे कहा यह गया कि उच्चतम न्यायालय के स्वर्ण जयंती दिवस के चलते यह समारोह एक दिन पहले करने का फैसला किया गया. न्यायामुर्ति सर्वश्री दोरई स्वामी राजू और वाई.के.सभरवाल को 28 जनवरी,2000 की सुबह-सुबह शपथ दिलाई गई और तीसरी न्यायमूर्ति सुश्री रूमा पाल को दोपहर के बाद. श्री जैन ने बताया कि कहा यह गया कि न्यायमूर्र्ति दोरईस्वामी राजू और न्यायमूर्ति वाई.के.सभरवाल को दिल्ली मे रहने की वजह से समय रहते कार्यक्रम मेबदलाव की सूचना मिल गई थी, परन्तु न्यायमूर्ति रूमा पाल को समय से सूचना ही नहीं मिली और जब वो दोपहर कलकत्ता से दिल्ली पहुँची, तब तक दोनो शपथ ले चुके थे और न्यायमूर्ति पॉल ने तीसरे क्रम मे शपथ ली. श्री जैन के अनुसार उसी दिन तय हो गया था कि अगर सब कुछ यूं ही चलता रहा तो, न्यायमूर्ति दोरईस्वामी राजू एक जनवरी 2004 को रिटायर हो जायेंगे और मुख्य न्यायधीश आर.सी. लाहोटी के सेवा निवृत होने के बाद, एक नवम्बर, 2005 को ्न्यायमूर्ति वाई.के.सभरवाल भारत के नए मुख्य न्यायधीश बनेंगे और 13 जनवरी 2007 तक मुख्य न्यायधीश रहेंगे और न्यायमूर्ति रूमा पाल , 2 जून 2006 को, सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति के रूप में ही रिटायर हो जायेंगी न्यायमूर्ति रूमा पाल के शपथ लेने में कुछ घंटों की देरी से देश के न्यायिक इतिहास की धारा बदल गई, और देश पहली प्रधान न्यायाधीश पाते पाते रह गया. श्री जैन ने कहा कि रगीना गुहा के मामले में कलकत्ता उच्च-न्यायालय ने 1916 में और सुधांशु बाला हजारा के मामले में पटना उच्च-न्यायालय ने 1922 में अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि “महिलायें कानून की डिग्री और योग्यता के बावजूद अधिवक्ता होने की अधिकारी नहीं है”. 24 अगस्त, 1921 को पहली बार इलाहाबाद उच्च-न्यायालय ने सुश्री कोर्नेलिया सोराबजी को वकील बनने–होने की अनुमति दी थी और स्त्री अधिवक्ता अधिनियम,1923 (के अंतर्गत, महिलाओं के विरुद्ध जारी ‘अयोग्यता’ को समाप्त किया गया था. इस हिसाब से देखें, तो महिलाओं को वकालत के पेशे में सक्रिय भूमिका निभाते, 100 साल होने को है श्री जैन कहते है " 2012 मे जब हम इस समानता का शताब्दी वर्ष मनायेंगे ,तो विश्वास के साथ उम्मीद तो की ही जा सकती है कि ‘न्याययात्रा’ के हमराही, लिंगभेद के शिकार नहीं होंगे.वी एन आई

Leave a Comment:
Name*
Email*
City*
Comment*
Captcha*     8 + 4 =

No comments found. Be a first comment here!

ताजा खबरें

Quote of the Day
Posted on 14th Nov 2024

Connect with Social

प्रचलित खबरें

© 2020 VNI News. All Rights Reserved. Designed & Developed by protocom india