इन्दौर30 अगस्त,(वीएनआई) -आत्मविद्या के पथ-प्रदर्शक संत शिरोमणि जैनचार्य विद्यासागरजी आत्म-साधना के लिए निर्जन स्थलों को प्रश्रय देते हैं। आपकी मुद्रा भीड़ में अकेला होने का बोध कराती है। अकंप पद्मासन शांत स्वरूप, अर्धमीलित नेत्र, दिगम्बर वेश, आध्यात्मिक परितृप्ति-युक्त जीवन और निःशब्द अनुशासन जनसमूह के अंतर्मन को छुए बिना नहीं रहता। सभा मंडप में दुर्द्धर साधक की वाणी जब मुखरित होती है, तब निःशांति व्याप्त हो जाती है। श्रोता मंत्रमुग्ध हो श्रवण करते हैं। दृश्य समवशरण सा उपस्थित हो जाता है। आध्यात्मिक गुण-ग्रंथियाँ स्वतः खुलती चली जाती है। एक-एक वाक्य में वैदुष्य झलकता है। अध्यात्मी आचार्य कुंदकुंद और दार्शनिक आचार्य समन्तभद्र का समन्वय ‘प्रवचन’ में विद्यमान रहता है। आपके दर्शन से जीवन-दर्शन को समझा जा सकता है। जिनका मन आज के कतिपय साधुओं से खिन्न होकर ‘ण्मो लोए सव्व साहूणं’ से विरक्त हुआ है, वे एक बार सिर्फ एक बार लोक मंगलकारी, आत्मनिष्ठ विद्यासागरजी का सत्संग कर लें।
दिगम्बर जैन आगम के अनुसार मुनिचर्या का पूर्णतः निर्वाह करते हुए परम तपस्वी विद्यासागरजी न किसी वाहन का उपयोग करते हैं, न शरीर पर कुछ धारण करते हैं। पूर्णतः दिगम्बर नग्न अवस्था में रहते हैं। पैदल ही विहार करते हैं। आपने सन् १९७१ से मीठा व नमक, १९७६ से रस, फल, १९८३ से जीवनभर पूर्ण थूकना, १९८५ से बिना चटाई रात्रि विश्राम, १९९२ से हरी सब्जियाँ व दिन में सोने का भी त्याग कर रखा है। खटाई, मिर्च, मसालों का त्याग किए २६ वर्ष हो चुके हैं। भोजन में काजू, बादाम, पिस्ता, छुवारे, मेवा, मिठाई, खोवा-कुल्फी जैसे व्यंजनों का सेवन भी नहीं करते। आहार में सिर्फ दाल, रोटी, दलिया, चावल, जल, दूध वो भी दिन में एक बार खड़गासन मुद्रा में अंजुलि में ही लेते हैं।
कठोर साधक विद्यासागरजी ने बाह्य आडम्बरों-रूढ़ियों का विरोध किया है। आपका कहना है : कच-लुंचन और वसन-मुंचन से व्यक्ति संत नहीं बन सकता। संत बनने के लिए मन की विकृतियों का लुंचन-मुंचन करना पड़ेगा। मनुष्य श्रद्धा और विश्वास के अमृत को पीकर, विज्ञान-सम्मत दृष्टि अपनाकर सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और चरित्र का अवलंबन कर आत्मा के निकट जा सकता है, आत्मोद्धार कर सकता है, मोक्ष रूपी अमरत्व को पा सकता है। कोरा ज्ञान अहम पैदा करता है। जो व्यक्ति अपने लिए रोता है, वह स्वार्थी कहलाता है। लेकिन जो दूसरों के लिए रोता है, वह धर्मात्मा कहलाता है। धर्म को समझने के लिए सबसे पहले मंदिर जाना अनिवार्य नहीं है, बल्कि दूसरों के दुःखों को समझना अत्यावश्यक है। जब तक हमारे दिल में किसी को जगह नहीं देंगे, तब तक हम दूसरे के दुःखों को समझ नहीं सकते।
आपकी स्पष्ट मान्यता है कि श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों समाज अल्पसंख्यक मान्यता, जीवदया के क्षेत्र में अंतर्मन से साथ-साथ काम करें। सभी मतभेद, मनभेद दूर करते हुए सुलझा लें। भगवान नेमिनाथजी के मोक्षस्थल के लिए सहयोग कर लें।
श्रमण संस्कृति के उन्नायक संत के उद्बोधन, प्रेरणा, आशीर्वाद से अनेक स्थानों पर चैत्यालय, जिनालय, खिल चौबीसी, उदासीन आश्रम, स्वाध्याय शाला, औषधालय आदि जगह-जगह स्थापित किए गए हैं। शिक्षण के क्षेत्र में युवकों को राष्ट्र सेवा के लिए उच्च आदर्श युक्त नागरिक बनने की दृष्टि से भोपाल व जबलपुर में ‘प्रशासकीय प्रशिक्षण केंद्र’ सफलतापूर्वक संचालित हो रहे हैं। अनेक विकलांग शिविरों में कृत्रिम अंग, श्रवण यंत्र, बैसाखियाँ, तीन पहिए की साइकलें वितरित की गई हैं। कैम्पों के माध्यम से आँख के ऑपरेशन, दवाइयाँ, चश्मों का निःशुल्क वितरण, रक्तदान जैसे प्रयास किए गए हैं। ‘भाग्योदय तीर्थ धर्मार्थ चिकित्सालय’, सागर में रोगियों का उपचार शाकाहार पर आधारित करने की प्रक्रिया निरंतर जारी है। ३०० बिस्तर के इस चिकित्सा संस्थान द्वारा पिछले आठ वर्ष में दो बार विभिन्न बीमारियों के लिए निःशुल्क ऑपरेशन विदेशों से विशेषज्ञ चिकित्सकों को आमंत्रित करके किए जा रहे हैं। भोपाल में शीघ्र ही विद्यासागर मेडिकल कॉलेज स्थापित होने जा रहा है। दिल्ली में आईएएस, आईपीएस आदि की परीक्षा देने वाले युवाओं के लिए सर्वसुविधायुक्त छात्रावास निकट भविष्य में प्रारंभ होने जा रहा है। कई स्थानों पर शोध संस्थान चल रहे हैं।
कन्नड़ भाषी होते हुए भी गहन चिंतक विद्यासागरजी ने प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिंदी, मराठी, बंगला और अँग्रेजी में लेखन किया है। आपके द्वारा रचित साहित्य में सर्वाधिक चर्चित कालजयी अप्रतिम कृति ‘मूकमाटी’ महाकाव्य है। इस कृति में आचार्यश्री को हिन्दी और संत साहित्य जगत में काव्य की आत्मा तक पहुँचा दिया है। यह रूपक कथा-काव्य, अध्यात्म दर्शन एवं युग चेतना का संगम है। इसके माध्यम से राष्ट्रीय अस्मिता को पुनर्जीवित किया गया है। इसका संदेश है : देखो नदी प्रथम है। निज को मिटाती खोती। तभी अमित सागा रूप पाती। व्यक्तित्व के अहम को। मद को मिटा दें। तू भी ‘स्व’ को सहज में। प्रभु में मिला दे। देश के ३०० से अधिक साहित्यिकारों की लेखनी मूक माटी को रेखांकित कर चुकी है, ३० से अधिक शोध/लघु प्रबंध इस पर लिखे जा चुके हैं।
महाश्रमण विद्यासागरजी जल के सदृश निर्मल, प्रसन्न रहते हैं, मुस्कराते रहते हैं। तपस्या की अग्नि में कर्मों की निर्जरा के लिए तत्पर रहते हैं। सन्मार्ग प्रदर्शक, धर्म प्रभावक आचार्यश्री में अपने शिष्यों का संवर्धन करने का अभूतपूर्व सामर्थ्य है। आपके चुम्बकीय व्यक्तित्व ने युवक-युवतियों में आध्यात्म की ज्योत जगा दी है।
साहित्य मनीषी, ज्ञानवारिधि जैनाचार्य प्रवर ज्ञानसागरजी महाराज के साधु जीवन व पांडित्य ने आपको अत्यधिक प्रभावित किया है। गुरु की कसौटी पर खरा उतर गए, इसलिए आषाढ़ शुक्ल पंचमी, रविवार ३० जून १९६८ को राजस्थान की ऐतिहासिक नगरी, अजमेर में लगभग २२ वर्ष की आयु में संसार की समस्त बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर दिया। संयम धर्म के परिपालन हेतु आपको गुरु ज्ञानसागरजी ने पिच्छी-कमण्डल प्रदान कर ‘विद्यासागर’ नाम से दीक्षा देकर संस्कारित किया और उनका शिष्यत्व पाने का सौभाग्य प्राप्त हो गया।
ज्ञात इतिहास की वह संभवतः पहली घटना थी, जब नसीराबाद (अजमेर) में ज्ञानसागरजी ने शिष्य विद्यासागरजी को अपने करकमलों से बुधवार २२ नवंबर १९७२ को अपने जीवनकाल में आचार्य पद का संस्कार शिष्य पर आरोपण करके शिष्य के चरणों में नमन कर उसी के निर्देशन में समाधिमरण सल्लेखना ग्रहण कर ली हो।
२२ वर्ष की आयु में संत शिरोमणि विद्यासागरजी का पहला चातुर्मास अजमेर में हुआ था। ३९वाँ वर्षायोग ससंघ ४४ मुनिराजों के साथ इस वर्ष अमरकंटक (मध्यप्रदेश) में संपन्न होने जा रहा है। अब तक आपने ७९ मुनि, १६५ आर्यिका, ८ ऐलक, ५ क्षुल्लक सहित २५७ दीक्षाएँ प्रदान की हैं। यह जैन श्रमण-परम्परा के ज्ञात इतिहास में प्रथम संघ है, जिसमें आचार्य द्वारा दीक्षित सभी शिष्य, साधुगण, आर्यिकाएँ, बाल ब्रह्मचारी-बाल ब्रह्मचारिणी हैं। आप पूरी निष्ठा से गुरु ज्ञानसागरजी के पद चिन्हों पर चल रहे हैं। आपमें आचार्य पद के सभी गुण विद्यमान हैं। हजार से अधिक बाल ब्रह्मचारी-बाल ब्रह्मचारिणी आपसे व्रत-प्रतिमाएँ धारण कर रत्नत्रय धर्म का पालन कर रहे हैं। जैन समाज संख्या की दृष्टि से सबसे अधिक साधना और अनुशासित मुनि संघ के संघ नायक आचार्य आप ही हैं। घड़ी के काँटे से नित्य-नियम का पालन करते हैं।
करुणावंत विद्यासागरजी की पक्की धारणा है कि भारत को दया के क्षेत्र में सक्रिय होना ही चाहिए। यदि हम संकल्प कर लें कि देश से मांस निर्यात नहीं होने देंगे तो क्या मजाक कि सरकार जनभावना का अनादर कर सके। पशुओं का वध बिना मौत आए किया जा रहा है। सरकार ने कत्लखाने खोलकर, अनुदान देकर, खून बहाकर, मांस बेचकर, चमड़ा निर्यात करके, पशुओं के कत्ल को कृषि उत्पादन की श्रेणी में रख दिया है। हिंसा को व्यापार का रूप प्रदान कर रखा है।
ऐसी नीति से आप ईश्वर की प्रार्थना करने के काबिल नहीं हो सकते। अहिंसा की उपासना वाले राष्ट्र में कत्लखानों की क्या आवश्यकता है? ईश्वर की उपासना हिंसा-कत्ल से घृणा सिखाती है। सभी जीवों को जीने का संदेश देती है। प्रेम, स्नेह, वात्सल्य सिखाती है। ये कत्लखाने धर्म का अपमान हैं। कोई भी धर्म हिंसा को अच्छा नहीं मानता और न ही इसका समर्थन करता है। कत्लखानों से बच्चों को क्या सीख मिलेगी?
जिस यायावर संत, निर्मल अनाग्रही दृष्टि, तीक्ष्ण मेघा, स्पष्ट वक्ता के समक्ष व्यक्ति स्वतः नतशिर हो जाता है, उन महाव्रती विद्यासागरजी का जन्म कर्नाटक प्रांत के बेलगाँव जिले के ग्राम सदलगा के निकटवर्ती गाँव चिक्कोडी में १० अक्टूबर १९४६ की शरद पूर्णिमा को गुरुवार की रात्रि में लगभग १२.३० बजे हुआ था। श्रेष्ठी मल्लप्पाजी अष्टगे तथा माता श्रीमती श्रीमंति अष्टगे के आँगन में विद्यासागर का घर का नाम ‘पीलू’ था। जहाँ आप विराजते हैं, वहाँ तथा जहाँ अनेक शिष्य होते हैं, वहाँ भी आपका जन्म दिवस नहीं मनाया जाता। तपस्या आपकी जीवन पद्धति, आध्यात्म साध्य, विश्व मंगल आपकी पुनीत कामना व सम्यक दृष्टि व संयम आपका संदेश है। आप वीतराग परमात्मा पद के पथ की ओर सतत अग्रसर रहें, ऐसी पावन कामना के साथ राष्ट्रसंत के चरण कमल में मन-वचन-काय से कोटिशः
नमोस्तु….नमोस्तु….नमोस्तु…..
(शनिवार, ७ अक्टूबर को ६१वें वर्ष में पर्दापण – प्रसंग पर)
आत्मविद्या के पथ-प्रदर्शक संत शिरोमणि जैनचार्य विद्यासागरजी आत्म-साधना के लिए निर्जन स्थलों को प्रश्रय देते हैं। आपकी मुद्रा भीड़ में अकेला होने का बोध कराती है। अकंप पद्मासन शांत स्वरूप, अर्धमीलित नेत्र, दिगम्बर वेश, आध्यात्मिक परितृप्ति-युक्त जीवन और निःशब्द अनुशासन जनसमूह के अंतर्मन को छुए बिना नहीं रहता। सभा मंडप में दुर्द्धर साधक की वाणी जब मुखरित होती है, तब निःशांति व्याप्त हो जाती है। श्रोता मंत्रमुग्ध हो श्रवण करते हैं। दृश्य समवशरण सा उपस्थित हो जाता है। आध्यात्मिक गुण-ग्रंथियाँ स्वतः खुलती चली जाती है। एक-एक वाक्य में वैदुष्य झलकता है। अध्यात्मी आचार्य कुंदकुंद और दार्शनिक आचार्य समन्तभद्र का समन्वय ‘प्रवचन’ में विद्यमान रहता है। आपके दर्शन से जीवन-दर्शन को समझा जा सकता है। जिनका मन आज के कतिपय साधुओं से खिन्न होकर ‘ण्मो लोए सव्व साहूणं’ से विरक्त हुआ है, वे एक बार सिर्फ एक बार लोक मंगलकारी, आत्मनिष्ठ विद्यासागरजी का सत्संग कर लें।दिगम्बर जैन आगम के अनुसार मुनिचर्या का पूर्णतः निर्वाह करते हुए परम तपस्वी विद्यासागरजी न किसी वाहन का उपयोग करते हैं, न शरीर पर कुछ धारण करते हैं। पूर्णतः दिगम्बर नग्न अवस्था में रहते हैं। पैदल ही विहार करते हैं। आपने सन् १९७१ से मीठा व नमक, १९७६ से रस, फल, १९८३ से जीवनभर पूर्ण थूकना, १९८५ से बिना चटाई रात्रि विश्राम, १९९२ से हरी सब्जियाँ व दिन में सोने का भी त्याग कर रखा है। खटाई, मिर्च, मसालों का त्याग किए २६ वर्ष हो चुके हैं। भोजन में काजू, बादाम, पिस्ता, छुवारे, मेवा, मिठाई, खोवा-कुल्फी जैसे व्यंजनों का सेवन भी नहीं करते। आहार में सिर्फ दाल, रोटी, दलिया, चावल, जल, दूध वो भी दिन में एक बार खड़गासन मुद्रा में अंजुलि में ही लेते हैं।
कठोर साधक विद्यासागरजी ने बाह्य आडम्बरों-रूढ़ियों का विरोध किया है। आपका कहना है : कच-लुंचन और वसन-मुंचन से व्यक्ति संत नहीं बन सकता। संत बनने के लिए मन की विकृतियों का लुंचन-मुंचन करना पड़ेगा। मनुष्य श्रद्धा और विश्वास के अमृत को पीकर, विज्ञान-सम्मत दृष्टि अपनाकर सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और चरित्र का अवलंबन कर आत्मा के निकट जा सकता है, आत्मोद्धार कर सकता है, मोक्ष रूपी अमरत्व को पा सकता है। कोरा ज्ञान अहम पैदा करता है। जो व्यक्ति अपने लिए रोता है, वह स्वार्थी कहलाता है। लेकिन जो दूसरों के लिए रोता है, वह धर्मात्मा कहलाता है। धर्म को समझने के लिए सबसे पहले मंदिर जाना अनिवार्य नहीं है, बल्कि दूसरों के दुःखों को समझना अत्यावश्यक है। जब तक हमारे दिल में किसी को जगह नहीं देंगे, तब तक हम दूसरे के दुःखों को समझ नहीं सकते।
आपकी स्पष्ट मान्यता है कि श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों समाज अल्पसंख्यक मान्यता, जीवदया के क्षेत्र में अंतर्मन से साथ-साथ काम करें। सभी मतभेद, मनभेद दूर करते हुए सुलझा लें। भगवान नेमिनाथजी के मोक्षस्थल के लिए सहयोग कर लें।
श्रमण संस्कृति के उन्नायक संत के उद्बोधन, प्रेरणा, आशीर्वाद से अनेक स्थानों पर चैत्यालय, जिनालय, खिल चौबीसी, उदासीन आश्रम, स्वाध्याय शाला, औषधालय आदि जगह-जगह स्थापित किए गए हैं। शिक्षण के क्षेत्र में युवकों को राष्ट्र सेवा के लिए उच्च आदर्श युक्त नागरिक बनने की दृष्टि से भोपाल व जबलपुर में ‘प्रशासकीय प्रशिक्षण केंद्र’ सफलतापूर्वक संचालित हो रहे हैं। अनेक विकलांग शिविरों में कृत्रिम अंग, श्रवण यंत्र, बैसाखियाँ, तीन पहिए की साइकलें वितरित की गई हैं। कैम्पों के माध्यम से आँख के ऑपरेशन, दवाइयाँ, चश्मों का निःशुल्क वितरण, रक्तदान जैसे प्रयास किए गए हैं। ‘भाग्योदय तीर्थ धर्मार्थ चिकित्सालय’, सागर में रोगियों का उपचार शाकाहार पर आधारित करने की प्रक्रिया निरंतर जारी है। ३०० बिस्तर के इस चिकित्सा संस्थान द्वारा पिछले आठ वर्ष में दो बार विभिन्न बीमारियों के लिए निःशुल्क ऑपरेशन विदेशों से विशेषज्ञ चिकित्सकों को आमंत्रित करके किए जा रहे हैं। भोपाल में शीघ्र ही विद्यासागर मेडिकल कॉलेज स्थापित होने जा रहा है। दिल्ली में आईएएस, आईपीएस आदि की परीक्षा देने वाले युवाओं के लिए सर्वसुविधायुक्त छात्रावास निकट भविष्य में प्रारंभ होने जा रहा है। कई स्थानों पर शोध संस्थान चल रहे हैं।
कन्नड़ भाषी होते हुए भी गहन चिंतक विद्यासागरजी ने प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिंदी, मराठी, बंगला और अँग्रेजी में लेखन किया है। आपके द्वारा रचित साहित्य में सर्वाधिक चर्चित कालजयी अप्रतिम कृति ‘मूकमाटी’ महाकाव्य है। इस कृति में आचार्यश्री को हिन्दी और संत साहित्य जगत में काव्य की आत्मा तक पहुँचा दिया है। यह रूपक कथा-काव्य, अध्यात्म दर्शन एवं युग चेतना का संगम है। इसके माध्यम से राष्ट्रीय अस्मिता को पुनर्जीवित किया गया है। इसका संदेश है : देखो नदी प्रथम है। निज को मिटाती खोती। तभी अमित सागा रूप पाती। व्यक्तित्व के अहम को। मद को मिटा दें। तू भी ‘स्व’ को सहज में। प्रभु में मिला दे। देश के ३०० से अधिक साहित्यिकारों की लेखनी मूक माटी को रेखांकित कर चुकी है, ३० से अधिक शोध/लघु प्रबंध इस पर लिखे जा चुके हैं।
महाश्रमण विद्यासागरजी जल के सदृश निर्मल, प्रसन्न रहते हैं, मुस्कराते रहते हैं। तपस्या की अग्नि में कर्मों की निर्जरा के लिए तत्पर रहते हैं। सन्मार्ग प्रदर्शक, धर्म प्रभावक आचार्यश्री में अपने शिष्यों का संवर्धन करने का अभूतपूर्व सामर्थ्य है। आपके चुम्बकीय व्यक्तित्व ने युवक-युवतियों में आध्यात्म की ज्योत जगा दी है।
साहित्य मनीषी, ज्ञानवारिधि जैनाचार्य प्रवर ज्ञानसागरजी महाराज के साधु जीवन व पांडित्य ने आपको अत्यधिक प्रभावित किया है। गुरु की कसौटी पर खरा उतर गए, इसलिए आषाढ़ शुक्ल पंचमी, रविवार ३० जून १९६८ को राजस्थान की ऐतिहासिक नगरी, अजमेर में लगभग २२ वर्ष की आयु में संसार की समस्त बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर दिया। संयम धर्म के परिपालन हेतु आपको गुरु ज्ञानसागरजी ने पिच्छी-कमण्डल प्रदान कर ‘विद्यासागर’ नाम से दीक्षा देकर संस्कारित किया और उनका शिष्यत्व पाने का सौभाग्य प्राप्त हो गया।
ज्ञात इतिहास की वह संभवतः पहली घटना थी, जब नसीराबाद (अजमेर) में ज्ञानसागरजी ने शिष्य विद्यासागरजी को अपने करकमलों से बुधवार २२ नवंबर १९७२ को अपने जीवनकाल में आचार्य पद का संस्कार शिष्य पर आरोपण करके शिष्य के चरणों में नमन कर उसी के निर्देशन में समाधिमरण सल्लेखना ग्रहण कर ली हो।
२२ वर्ष की आयु में संत शिरोमणि विद्यासागरजी का पहला चातुर्मास अजमेर में हुआ था। ३९वाँ वर्षायोग ससंघ ४४ मुनिराजों के साथ इस वर्ष अमरकंटक (मध्यप्रदेश) में संपन्न होने जा रहा है। अब तक आपने ७९ मुनि, १६५ आर्यिका, ८ ऐलक, ५ क्षुल्लक सहित २५७ दीक्षाएँ प्रदान की हैं। यह जैन श्रमण-परम्परा के ज्ञात इतिहास में प्रथम संघ है, जिसमें आचार्य द्वारा दीक्षित सभी शिष्य, साधुगण, आर्यिकाएँ, बाल ब्रह्मचारी-बाल ब्रह्मचारिणी हैं। आप पूरी निष्ठा से गुरु ज्ञानसागरजी के पद चिन्हों पर चल रहे हैं। आपमें आचार्य पद के सभी गुण विद्यमान हैं। हजार से अधिक बाल ब्रह्मचारी-बाल ब्रह्मचारिणी आपसे व्रत-प्रतिमाएँ धारण कर रत्नत्रय धर्म का पालन कर रहे हैं। जैन समाज संख्या की दृष्टि से सबसे अधिक साधना और अनुशासित मुनि संघ के संघ नायक आचार्य आप ही हैं। घड़ी के काँटे से नित्य-नियम का पालन करते हैं।
करुणावंत विद्यासागरजी की पक्की धारणा है कि भारत को दया के क्षेत्र में सक्रिय होना ही चाहिए। यदि हम संकल्प कर लें कि देश से मांस निर्यात नहीं होने देंगे तो क्या मजाक कि सरकार जनभावना का अनादर कर सके। पशुओं का वध बिना मौत आए किया जा रहा है। सरकार ने कत्लखाने खोलकर, अनुदान देकर, खून बहाकर, मांस बेचकर, चमड़ा निर्यात करके, पशुओं के कत्ल को कृषि उत्पादन की श्रेणी में रख दिया है। हिंसा को व्यापार का रूप प्रदान कर रखा है।
ऐसी नीति से आप ईश्वर की प्रार्थना करने के काबिल नहीं हो सकते। अहिंसा की उपासना वाले राष्ट्र में कत्लखानों की क्या आवश्यकता है? ईश्वर की उपासना हिंसा-कत्ल से घृणा सिखाती है। सभी जीवों को जीने का संदेश देती है। प्रेम, स्नेह, वात्सल्य सिखाती है। ये कत्लखाने धर्म का अपमान हैं। कोई भी धर्म हिंसा को अच्छा नहीं मानता और न ही इसका समर्थन करता है। कत्लखानों से बच्चों को क्या सीख मिलेगी?
जिस यायावर संत, निर्मल अनाग्रही दृष्टि, तीक्ष्ण मेघा, स्पष्ट वक्ता के समक्ष व्यक्ति स्वतः नतशिर हो जाता है, उन महाव्रती विद्यासागरजी का जन्म कर्नाटक प्रांत के बेलगाँव जिले के ग्राम सदलगा के निकटवर्ती गाँव चिक्कोडी में १० अक्टूबर १९४६ की शरद पूर्णिमा को गुरुवार की रात्रि में लगभग १२.३० बजे हुआ था। श्रेष्ठी मल्लप्पाजी अष्टगे तथा माता श्रीमती श्रीमंति अष्टगे के आँगन में विद्यासागर का घर का नाम ‘पीलू’ था। जहाँ आप विराजते हैं, वहाँ तथा जहाँ अनेक शिष्य होते हैं, वहाँ भी आपका जन्म दिवस नहीं मनाया जाता। तपस्या आपकी जीवन पद्धति, आध्यात्म साध्य, विश्व मंगल आपकी पुनीत कामना व सम्यक दृष्टि व संयम आपका संदेश है। आप वीतराग परमात्मा पद के पथ की ओर सतत अग्रसर रहें, ऐसी पावन कामना के साथ राष्ट्रसंत के चरण कमल में मन-वचन-काय से कोटिशः
नमोस्तु….नमोस्तु….नमोस्तु…..(साभार vidyasagar.net )