सहरसा, 7 मई (मनोज पाठक) आमतौर पर अगर लोगों को मोर के दर्शन करने होते हैं, तब वह चिड़ियाघर या जंगलों की ओर रुख करते हैं। पटना में भी अगर आपको नाचते मोर के दृश्य का आनंद लेना हो तो आप संजय गांधी जैविक उद्यान जाना चाहेंगे, लेकिन बिहार के सहरसा जिला का आरण एक ऐसा गांव है, जिसकी पहचान ही अब 'मोर के गांव' के रूप में होने लगी है। इस गांव में प्रवेश करते ही आपका स्वागत मोर ही करेंगे।
इस गांव के खेत-खलिहान हों या घर की मुंडेर आपको मोर चहलकदमी करते या नाचते-झूमते मिल जाएंगे। इस गांव में आप मोर को बिंदास अंदाज में देख सकते हैं। ये मोर गांव के लोगों से ऐसे हिले-मिले नजर आएंगे कि यह उनकी रोजमर्रा में शामिल हो गए हैं। मोर इस गांव के लोगों को अच्छी तरह पहचान भी चुके हैं। किसी अनजान व्यक्ति को देखकर तो ये मोर फुर्र हो जाएंगे, लेकिन गांव वालों से इन मोरों की दोस्ती है। मोर उनको देखकर नहीं भागते।
ग्रामीण विशेश्वर यादव बताते हैं कि इस गांव में अभिनंदन यादव वर्ष 1984-85 में पंजाब से एक मोरों का जोड़ा लाए थे और उसके बाद यहां मोरों की संख्या लगातार बढ़ती चली गई। आज यहां मोरों की संख्या कम से कम 200 से 250 तक पहुंच गई है।
सहरसा के वन प्रमंडल पदाधिकारी सुनील कुमार सिन्हा के अनुरोध पर इंडियन बर्ड कंजर्वेशन नेटवर्क के स्टेट कॉर्डिनेटर अरविंद मिश्रा भी इस गांव का दौरा कर यहां के मोरों को देख चुके हैं।
मिश्रा कहते हैं, "पूर्वी चंपारण के माधोपुर गोविंद 'मोर गांव' है। उस गांव पर मैंने अपनी रिपोर्ट भी सरकार को सौंपी है। बिहार में यह दूसरा गांव है, जहां मोर स्वच्छंद होकर घूम रहे हैं। यह दोनों गांव बड़ा पयर्टन स्थल बन सकते हैं। ईको टूरिज्म से जोड़कर इसका और विकास होना चाहिए।"
मिश्रा का कहना है कि मोरों को लोगों के बीच रहने में कोई परेशानी नहीं होती। ये अंडे भी गांव में झाड़ियों के बीच देते हैं और एक महीने के अंदर इन अंडों में से बच्चे निकल आते हैं।
स्थानीय निवासी विकास बताते हैं कि यह गांव प्राकृतिक सौंदर्य से भरा पड़ा है, चारों तरफ हरियाली का साम्राज्य है। पेड़-पौधे ज्यादा हैं। उन्होंने बताया कि ये मोर लोगों के घर से बाहर सूख रहे अनाज या खेतों में डाले गए बीजों को अक्सर नुकसान पहुंचाते हैं, मगर स्थानीय लोग मोरों को नुकसान नहीं पहुंचाते। ग्रामीण भी मानते हैं कि गांव की सुंदरता के लिए इतना त्याग तो करना ही पड़ेगा।
मोर के पंख अब गांव में जहां-तहां गिरे दिखेंगे। यहां का शायद ही कोई घर हो जहां कमरे को सजाने में मोर के पंख का इस्तेमाल नहीं किया गया हो।
सहरसा के वन प्रमंडल पदाधिकारी सुनील सिन्हा बताते हैं कि मोरों की संख्या यहां कितनी है, इसकी सही-सही गणना आज तक नहीं की गई है। लेकिन यहां मोरों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। अब तो गांव में झुंड में भी मोरों को देखा जा सकता है।
सहरसा के वन क्षेत्र पदाधिकारी विद्यापति सिन्हा कहते हैं, "सहरसा से चार किलोमीटर दूर स्थित दसे 'मोर गांव' में कोई भी मोर को पिंजड़े में नहीं रखता। अगर कोई मोर गांव से बाहरी भी चला जाता है तो फिर वापस इस गांव में पहुंच जाता है।"--आईएएनएस