नई दिल्ली, 30 नवंबर, (शोभना जैन/वीएनआई) श्रीलंका का राजनैतिक संकट गहराता जा रहा है. पिछले तीन हफ्तों से जारी राजनैतिक संकट के समाधान का कोई और-छोर नजर नही आ रहा है. गहन आर्थिक संकट और अल्प संख्यक समुदाय की चिंताओं से घिरे देश में हर दिन राजनैतिक अनिश्चितता दिनो दिन बढती जा रही है.इसी उथल पुथल में कल संसद ने श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना द्वारा गत 26 अक्टुबर को नियुक्त किये गये प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में मतदान किया जो कि राष्ट्रपति सिरिसेना के लिए एक बड़े झटके के तौर पर देखा जा रहा है.निश्चय ही इस कदम से प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे का पक्ष मजबूत हुआ है, लेकिन राजनैतिक संकट और गहरा गया है. इस घटनाक्रम के बाद आज भी संसद मे हंगामा बरपा रहा और हालत यह आ गई कि संसद मे आज खुल कर सिर फुटौवल हुआ, पक्ष विपक्ष के बीच ही नही अपितु स्पीकर कारू जयसूर्या तक पर किताबें, डस्ट्बिन फेके गये. निश्चय ही इस आलम मे सवाल पूछा जा रहा है कि श्री लंका के राष्ट्रपति सिरीसेना लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित अखिर रानिल विक्रमसिंघे को प्रधान मंत्री के रूप मे काम करने दे का रास्ता बना कर देश को इस राजनैतिक संकट से मुक्त क्यों नही करते.इस पूरे घटनाक्रम पर जहा अमरीका सहित अंतरराष्ट्रीय मंचो से खुल कर गहरी चिंता जताई गई है वही नव नियुक्त प्रधान मंत्री राजपक्षे जो कि चीन समर्थक माने जाते है और चीन अपने निहित कारणों से इस पूरे घटना क्रम पर गहराई से निगाह बनाये हुए है.दूसरी तरफ भारत भी अपने पड़ोसी देश के इस घटनाक्रम पर निगाह बनाये हुए है लेकिन सतर्कता के साथ. गौरतलब है कि श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना ने गत २६ अक्टुबर को निर्वाचित प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को अचानक बर्खास्त करने के बाद उपजे राजनीतिक और संवैधानिक संकट के बीच गत शुक्रवार को देश की संसद को भंग करने का आदेश जारी कर दिया था. इसके साथ उन्होंने देश में समय से पहले पांच जनवरी को आम चुनाव कराए जाने की भी घोषणा की थी.्यहा यह बात गौर करने लायक है कि देश के उच्चतम न्यायालय ने एक अंतरिम आदेश के जरिये संसद को बहाल कर दिया.
दरअसल सिरीसेना का एक के बाद एक कदम देश को गहरे राजनैतिक संकट की तरफ ले जा रहा है.्सिरीसेना के कदम असंवैधानिक रहे है तथा २०१५ के संवाधानिक सुधारो के खिलाफ है जिस के तहत राष्ट्रपति के निर्बाध अधिकारों को सीमित कर दिया गया था. संसद मे राजपक्षे सरकार के खिलाफ पारित हुए अविश्वास प्रस्ताव के बाद अब सिरीसेना के पास दो ही रास्ते बचते है या तो वे विक्रम सिंघे को दोबारा प्रधान मंत्री बनाये जिन्हे उन्होने बर्खस्त कर दिया था या फिर उच्चतम न्यायालय मे विक्रम सिंघे सरकार की ्बर्खास्तगी और संसद भंग किये जाने के खिलाफ आने वाले आगामी सात दिसंबर के फैसले का इंतजार करे.दरअसल इस संकट के पीछे शीर्ष राजनेताओं के बीच परस्पर मतभेद और महत्वाकांक्षाये खासी अहम है.श्री लंका की राजनीति की घरेलू उठा पटक को अगर देखे तो 2015 के जनवरी महीने में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ. तब राजपक्षे को चुनौती दी थी मैत्रीपाला सिरीसेना ने. दोनों की एक ही पार्टी थी- श्रीलंका फ्रीडम पार्टी, लेकिन धड़े अलग अलग थे. महिंदा राजपक्षे पर 'तानाशाह बनने' और 'भ्रष्टाचार' करने के आरोप थे. राष्ट्रपति चुनाव में सिरीसेना को अप्रत्याशित जीत मिली.
श्री लंका की राजनीति पर पैनी पकड़ रखने वाले एक विशेषज के अनुसार ्सिरीसेना तब प्रधानमंत्री बनना चाहते थे. लेकिन राष्ट्रपति रहते महिंदा राजपक्षे ने ऐसा नहीं किया. इससे क्षुब्ध होकर श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के नेता सिरीसेना ने सिंघलियों की यूनाइटेड नेशनल पार्टी के नेता रानिल विक्रमसिंघे से हाथ मिलाया. दोनों ने मिलकर राजपक्षे के धड़े को हरा दिया. चुनाव के बाद सिरीसेना राष्ट्रपति बने और उन्होंने रानिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री बना दिया, लेकिन अब उन्ही विक्रमसिंघे को सिरीसेना ने हटा दिया.
श्रलंका घटनाक्रम का इस क्षेत्र पर पड़ने वाले प्रभाव की बात करे तो श्रीलंका में चीन ने बड़े पैमाने पर निवेश किया है. श्रीलंका चीन का कर्ज़दार भी है.दूसरी तरफ भारत भी श्रीलंका के विकास में मददगार रहा है और दोनो देश सांस्कृतिक कारणो से भी एक दूसरे के कही ज्यादा नजदीक है या यूं कहे ये रिश्ते व्यवाहरिकता से ज्यादा भावनात्मक ज्यादा है.इसी क्रम मे अगर हम देखे तो कुछ समय पूर्व विक्रमसिंघे के एक समर्थक ने चीन पर आरोप लगाया था कि चीन अनिश्चितता के इस दौर में राजपक्षे के लिये समर्थक जुटाने के लिये थैलियॉ खोल रहा है जिस का चीन ने जम कर विरोध किय. तमिल टाईगर्स के दमचक्र और देश की सिविल वार से निबटने मे सख्ती या यूं कहे कि नृशंसता के दोषी माने जाते है और चीन से उन की नजदीकी भी ्छिपी नही है. उन के कार्यकाल में श्री लंका मे आधारभूत क्षेत्र मे बड़े पैमाने पर निवेश हुआ .दूसरी तरफ विक्रम सिंघे जहा चीन की नीतियों से सतर्क रहते है लेकिन भारत की तरफ से निश्चिंत. ऐसे में भारत श्री लंका के गहराते राजनैतिक संकट पर निगाह तो बनाये हुए है लेकिन सतर्कता भी बरते हुए ्है गत २६ अक्टुबर को सिरीसेना ने लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित विक्रमसिंघे को ह्टा कर महिन्द राजपक्षे को प्रधान मंत्री नियुक्त कर दिया था तब भारत ने महज यही कहा कि वह श्री लंका के राजनैतिक घटनाक्रम पर निगाह बनाये हुए ्है. उस ने कहा कि एक निकट पड़ोसी और लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत को उम्मीद है कि लोकतांत्रिक मूल्यो और संवैधानिक प्रक्रिया का सम्मान किया जायेगा. भारत श्री लंका के मित्रों को विकास सहायता देता रहेगा. साभार - लोकमत (लेखिका वीएनआई न्यूज़ की प्रधान संपादिका है)
No comments found. Be a first comment here!