अमरकंटक,छत्तीसगढ, 5 मार्च (वेदचंदजैन/वीएनआई) प्रसिद्ध दर्शनिक तपस्वी जैन संत शिरोमणि श्री विद्यासागर महाराज ने कहा है कि सांसारिक वैभव अस्थिर, अस्थायी होता है.यह एक पल में प्राप्त ,और अगले ही पल समाप्त हो सकता है। यही संसार की लीला है, इस लिये यह वैभव प्राप्त होने पर भी कभी संतोष का त्याग नही करे और न/न ही अंहकार को पास फटकने दे.। आचार्य श्री ने बताया कि ्संसारिक और आध्यात्मिक दोनो ही लक्ष्य पर ध्यान रखते हुए यह भी सदैव याद रखे कि लक्ष्य को प्राप्त कर्ने का रास्ता कठिनाईयों भरा है, यह याद रखने से तो कठिनाइयां कम हो जाती है।
आचार्य श्री यहा श्रद्धालुओ की विशाल सभा को संबोधित कर रहे थे. इस से पूर्व यहा ससंघ आशीर्वाद प्राप्त किया.पहुंचने पर श्रद्धालुओ ने उनका हार्दिक अभिनंदन करते हुएआशीर्वाद प्राप्त किया.इस अवसर पर अमर कंटक के शैल शिखर पर निर्माणाधीन विशाल भव्य जैन मंदिर के सम्मुख एक हज़ार आठ जिन प्रतिमा युक्त सहस्त्रकूट मान स्तम्भ का शिलान्यास संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के ससंघ सानिध्य में किया गया। मान स्तम्भ का जिन भवन बहु मंजिला व कीर्ति स्तंभ की शैली मेंं होगा। शिलान्यास समारोह में बिलासपुर के जाने माने व्यवसायी व्यवसायी प्रमोद सिंघई, विनोद सिंघई ने परिवार सहित समारोह को सफल बनाने के लिये विशेष योगदान दिया.
आचार्य श्री विद्यासागर ने कहा कि देवों के पास असीम वैभव होता है मगर मन पर अंकुश नही होता, सुख तो भोगते है किंतु संतोष नही होता । संतोष धारण की प्रवृत्ति मानवमेंं होती है देवो में नहीं।धार्मिक कार्यों में व्यय से मानव संतोष की अनुभूति करता है। मन पर अंकुश लगाकर संयम धारण कर संतोष सुख पा लेता है। हाथी की दिशा ठीक रखने के लिये महावत हाथी के सिर पर अंकुश का प्रयोग करता है। किसी की अवश्यकता की पूर्ति में सहायता करना अनुग्रह है , अनुग्रह से संतोष की अनुभूति होती है। चलने को गतिशीलता को प्रगति का सूचक बताते हुए कहा कि लगातार चलने वाले विरले ही होते है, चलने का अर्थ गतिशील होना है।आपने कुछ हास्य के भावो के साथ कहा कि हमारे गमन की सुचना पाकर कुछ लोग चलने लगते है कि महाराज हमारे गांव या नगर आ रहे है,साथ में हर्षोल्लास से चलते है किंतु कितनी दूर और कब तक? रास्ते में किलोमीटर की गणना करते रहते है कितनी दूरी शेष है।
उन्होंने कहा कि भव्य आत्माओं ने चलते चलते परम पद पा लिया।पद पद चले परम पद पा गए। भव्य आत्माओं के ध्यान से टूट रहा साहस पुनः दृढ़ होकर बल बन जाता है। भक्त न हो भक्ति नहीं हो सकती।भक्ति से भगवान को सरोकार नही अपितु भक्ति का सरोकार भक्त से/भक्त के लिए होता है। उन्होने कहा कि सहस्र कूट जिनालय का निर्माण विशेष पत्थरों से किया जा रहा है जिससे सैकड़ों वर्ष ऊपर चढ़ने का पथ प्रशस्त होता रहे।आचार्य श्री ने कहा कि चातुर्मास में एक स्थान पर रुकना होता है लेकिन वह समय अभी दूर है,यह संकेत करते हुए आचार्य श्री विद्यासागर ने बच्चों में दान की प्रवृत्ति की सराहना की।बच्चों के संस्कार से कभी कभी बड़ों को भी सीख लेना चाहिए।वीएनआई/वेद/अनुपमा
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