कैफ़ी आज़मी की पुण्यतिथि पर

By Shobhna Jain | Posted on 10th May 2020 | मनोरंजन
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नई दिल्ली, 10 मई, (सुनील कुमार/वीएनआई) कैफ़ी आज़मी का जन्म 14 जनवरी 1919 को आज़मगढ़ में हुआ, निधन 10 मई 2002 को मुंबई में हुआ. शबानाजी के स्कूल के साथी जब पूछते थे की तुम्हारे पिता क्या काम करते हैं. तो वो कह देती थीं की पिता बिज़नेस करते हैं किसी से नहीं कहती थी की वो शायर हैं उन्हें अजीब सा लगता था की पिताजी न ऑफिस जाते हैं ना अंग्रेजी बोलते हैं ना पेंट कमीज  पहनते  हैं बल्कि सफ़ेद कुरता पायजामा  पहनते थे. उनके दोस्त अपने पिता को पापा ,डैडी कहते थे और वो पिता को अब्बा  कहती थी. ये सब बातें उन्हें झकझोरती थी. शबानाजी  का दाखिला एक अंग्रेजी स्कूल में कराया गया ,और दाखिला कराने गए मुनीश नारायण सक्सेना और  सुल्ताना अहमद जाफरी उनके अब्बा अम्मी बन कर क्योंकी कैफ़ी साहिब और उनकी पत्नी को अंग्रेजी नहीं आती थी !स्कूल में उन की ये पोल एक दिन खुल गयी और वो बाल बाल बचीं!

जब कैफ़ी साहिब ने फिल्मों में गीत लिखना शुरू किया तो उनका नाम अख़बारों  में छपा और उनकी दोस्तों  ने अख़बारों में पढ़ा तब शबानाजी को अपने अब्बा पर फक्र हुआ और उन्हें महसूस हुआ की अब्बा और लोगों से अलग हैं. जब शबानाजी ९ साल की थी तब वो अब्बा अम्मी के साथ कम्युनिस्ट पार्टी के रेड फ्लैग हाउस के एक कमरे में रहती थी. कैफ़ी साहिब जो भी कमाते थे पार्टी को दे देते थे  और पार्टी ४० रु महीना अलाउंस देती थी शौकत जी पृथ्वी थिएटर में काम करती थी  और इस तरह परिवार चलता था. मुशायरों में आम तौर  पर कैफ़ी साहिब आखिर में पढ़ा करते थे और तालियों के बीच उनके कलाम सुने जाते थे. शबानाजी और उनके भाई बाबा  भी मुशायरों  में बैठे बैठे सो जाया करते थे !शबानाजी जब कुछ बड़ी हुईं  तो एक बार अब्बा से पूछा  आज आपने मुशायरे में कैसा पढ़ा तो वो बोले छिछोरे लोग अपनी तारीफ करते हैं ,जिस दिन बुरा पढूंगा तो बताऊंगा उन्होंने कभी अपनी मुंह से अपनी तारीफ नहीं की. कैफ़ी साहिब तमीज तहजीब पसंद थे शालीन थे ,घटिया बात और घटिया शायरी उन्हें पसंद नहीं थी  उन्हें राजनीति में उनकी रूचि थी. इसकी समझ थी

एक बार शबानाजी  मुंबई  में  भूख हड़ताल कर रही थी  तब कैफ़ी साहिब ने उन्हें सन्देश भेजा "कैर्री  ओन  बेस्ट ऑफ़ लक कामरेड" इसी प्रकार उन्होंने शबानाजी को एक पदयात्रा  में मेरठ  जाने के लिए प्रोत्साहित किया. कैफ़ी साहिब  का अपने पैतृक  गाॉव मिजवां से दिली रिश्ता  था  उन्होंने मुंबई  छोड़ने के बाद यहाँ   रह  कर बहुत सामाजिक कार्य किये. कैफ़ी साहिब की शायरी में आपका हमारा सबका दिल धड़कता है. आखिर में कैफ़ी साहिब के लिखे कुछ अशआर जो आपके गहराई तक छू जायेगें 

 

कोई सूद तो चुकाए कोई तो जिम्मा ले

उस इंकलाब का जो आज तक उधार सा है

तू खुर्शीद है  बादलों  में ना  छुप

तू महताब है जगमगाना न छोड  

(खुर्शीद-सूरज ,महताब -चाँद )

 

नगाहों में अर्जुन का तीर भी है

कब्जे में टीपू की शमशीर भी है

 

वो खेत कौन उजाडेगा कौन लूटेगा

उगी हुई है मुंडेरों पे जिनके शम्शीरें   

 

मौत लहराती थी  सौ शक्लों में

मेने घबराके हर शक्ल को खुदा मान लिया 

कैफ़ी साहिब पर लिखी किताब "कैफ़ियात " को पेश करते हुए शबानाजी ने अफ़सोस जाहिर किया था. के ये किताब कैफ़ी साहिब की जिंदगी में शाया  होनी चाहिए थी ये किताब कैफ़ी साहिब की शख्सियत ,समाज के लिए उनके दिल में  मौजुद  दर्द और फिक्र ,उनकी शायरी सब का एक मिला जुला रूप है.


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