यांगोन,म्यांमार 8 अगस्त (शोभनाजैन/वीएनआई) सड़क पर चारो तरफ एक उदासी, तन्हाई ,अजीब सा ठंडापन सा पसरा हुआ था ,गाड़ी तेजी से यांगोन के डेगॉन क्षेत्र के 6 जिवाका रोड की तरफ बढ रही थी. गाड़े मे मौजूद सभी लोग भी चुपचाप बैठे हुए थी. गाड़ी बढ रही ्थी 6 ,जिवाका रोड की तरफ, रास्ता जो हमे ले जा रहा था, लाल किले के पुश्तैनी महल से, देश निकाले के बाद अजनबी मुल्क में वतन की जुदाई तथा अपनी सरजमी पर लौटने की उम्मीद के धुंधलाने पर तिल तिल मरते अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र की मजार की तरफ बहादुर जफ़र की तड़प व तन्हाई न केवल उनकी शायरी से बयान होती है बल्कि उनकी यहाँ बनी मजार पर उनकी ये तन्हाई ,वतन से दूर ,वतन में पहुचने ,की छटपटाहट ,और लम्बे इंतजार के बाद भी यह चाहत कभी न पूरा हो पाने की नाउम्मीदी इस मजार के चप्पे चप्पे पर महसूस की जा सकती है. हालांकि कुछ वर्ष पूर्व पत्रकारिता के एक एसाईनमेंट के सिलसिले मे ्मैने म्यांमार की यात्रा की और उस दौरान मजार के दर्शन किये थे लेकिन वहा बिखरी छटपहाट और ्तड़प आज भी मन मे सिहरन पैदा करती है. कभी रंगून के नाम से मशहूर राजधानी यांगोन के बीचों बीच यह बनी बादशाह जफ़र की यह मजार दरअसल वीराने मे एक बेबसी की कहानी है. बादशाह एवं शायर जफ़र भले ही अपने आखरी दिनों में जलावतन (निर्वासित) हो कर दिल्ली के अपने लाल किले से दूर रहे हो लेकिन मजार के बारे मे एक स्थानीय निवासी बताते है उनकी उनकी मजार को लाल किले का नाम दिया गया है. मरने के बाद उनकी रूह शायद इस ख्याल से कुछ सकून पा लेती होगी कि दिली ख्वाहिश के बावजूद जिस लाल किले मे आखिरी सॉस लेने की उनके तमन्ना किरच किरच बिखर गई उनकी उनकी मजार को लाल किले का नाम दिया गया है
इतिहास के पन्नो के अनुसार 1857 ्के पहले स्वतंत्रता संग्राम मे शामिल होने से क्षुब्ध अंग्रेजी हुकूमत ने उन पर 1858 मे उन पर फौरी मुकदमा चलाया और अक्टूबर 1858 मे रात के सन्नाटे मे उन्हे कलकता होते हुए एक् जंगी जहाज पर बिठा कर रंगून भेज दिया और चार पीढियो से भारत मे राज करने के बाद मुगल सल्तनत खत्म हुई और आखिरी मुगल बादशाह, बूढे लाचार बादशाह के साथ उनकी ्बेगम जीनत महल , उनके दो बेटे, बहू और एक पोती जमानी बेगम और दो सिपाही के साथ उन्हे देश निकाला दे दिया गया. ततकालीन रंगून मे उन्हे चार कमरो के एक छोटे से घर मे रखा गया और दो तीन कर्मचारी दिये गये.घोर तन्हाई के इस आलम् ्मे 7 नवंबर 1862 ने बहादुर शाह जफर की 86 वर्ष की उम्र मे मौत हो गई. बहादुर शाह जफ़र ने अपने जीवन के आखरी चार साल तब के रंगून में बिताये और अपना अकेला पन शायऱी में बयान करने की कोशिश की लेकिन अंग्रेज उनसे इतने भयभीत थे कि वहा उन्हे लिखने पढने की सामग्री से दूर रखा गया हालत यह थी कि वह दीवारो पर कच्चे कोयळॅ से शायरी के जरिये अपना दर्द बयान करते थे उनका इन्तजार कभी पुरा नहीं हुआ ्दर्द और तन्हाई से भरे मन से अपने वतन को दुबारा देख पाने के इन्तजार में ही वे लिखते गये और दुनिया को अलविदा कर गये..
उम्रे दराज मांग कर लाये थे चार दिन !
दो आरजू में कट गए दो इन्तजार में ....
एक लम्बे इन्तजार का दर्द इन पंक्तियों में झलकता है जिसमे अखिर तक अपने वतन के ठंडे हवा के झोंके को छू लेने की तड़प झलकती है
कहता है रो रो कर जफ़र
मेरी आहें रसा का असर
तेरे हिज्र में न मौत आई अभी
मेरा चैन गया मेरी नींद गई..
इस स्थान पर उनकी बेगम ,बेटे और पौत्री, तीनो की मजार साथ साथ है ,लेकिन भयभीत अंग्रेज हकूमत मौत के बाद भी बाद्शाह जफ़र से डर्ते रहे और उन्हे चुपचाप दफना दिया और इसी डर से उन्होने उनकी मजार दफ़नाने के स्थान के बजाय दूसरे स्थान पर मजार बनवा बनवा दी और उनकी असली मजार गुमनाम ही रही. एक अकेली और गुमनाम मौत मरे बादशाह जफ़र की वास्तविक मजार का 1991 मे एक खुदाई मे पता चला वर्ष 1994 में म्यांमार सरकार ने भारत सरकार की मदद से उनकी मजार के आसपास आर निर्माण कर इमारत बनाई !अब यहाँ भारत सरकार के सहयोग से हर वर्ष इस तनहा शायर तथा अंतिम मुग़ल बादशाह के सम्मान में उर्स होता है ! भारत से आने वाले शीर्ष राज नेताओ. तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गॉधी, मनमोहन सिंह सहित अनेक नेता अक्सर म्यांमार यात्रा के दौरान ने इस अंतिम बादशाह को श्रद्धाजंलि देने यहा आते है. तन्हाई से जूझते जफर ने लिखा था
ना किसी की आँख का नूर हूँ
न किसी के दिल का करार हूँ
जो किसी के काम ना आ सके
मैं वो एक मुश्ते गुबार हूँ
अब भारत व म्यांमार के सहयोग से की व्यवस्था उनकी मजार पर पांचों वख्त की नमाज तथा फातिहा पढ़ने व्यवस्था है. भले ही ये उदास व गमगीन बादशाह अपने आखिरी दिनों में इतना नाउम्मीद हो चूका था की उन्हें लगने लगा :
मेरी कब्र पर पढ़े फातिहा कोई आये क्यों
कोई चार फूल चढ़ाये क्यों
कोई आके शम्मा जलाये क्यों
में वो बेबसी का मजार हूँ
लेकिन मजार पर सूरत (गुजरात) से पिछली चार पीढ़ियों से म्यांमार में बसे व्यवसायी इस्माइल बाक़ीया का परिवार पांचों वख्त नमाज पढ़वाता है तथा यहाँ फातिहा पढ़ते है ताकि एक उदास व गमगीन बादशाह की रूह को शायद कुछ चैन नसीब हो सके मजार पर मुस्लिम पूजा पद्धति के साथ- साथ ्म्यांमार पद्धिति के अनुसार भी पूजा की जाती है मजार की दीवारों पर उनकी शायरी की कुछ लाइने भी यहाँ वहां लिखी हुई है
मरने के बाद इश्क मेरा बेअसर हुआ
उड़ने लगी है खाक मेरे कुए यार से
मजार पर बादशाह जफ़र के आखिरी दिनों में ली गयी तस्वीर से झांकती उदास आँखें कहीं बहुत गहरे दिलो दिमाग पर जम जाती है !यांगून यात्रा पर आने वाले भारतीय यात्री अक्सर एक अजनबी मुल्क में अपनों से दूर एक गुमनाम मौत मरे अपने बादशाह की मजार पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने आते है. हमारा लौटने का वक्त है,उदासी और भी गहरी हो गई है इस शायर बादशाह की बदनसीबी उन्हें अपने वतन में दफ़न के लिए दो गज जमीन भी ना दिलवा सकी और वो गूंज मानो माहौल मे सुनाई दे रही है...
इतना है बदनसीब जफ़र
दो गज जमीन भी ना मिली कूचे यार में
अपने वतन से दूर भटकती उनकी रूह चैन पाये इसी दुआ के साथ...आमीन