नई दिल्ली, 03 फरवरी (शोभना जैन/वीएनआई) अब जब कि दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच अफगानिस्तान में अमरीकी फौजों की वापसी के स्वरूप के बारे में वार्ता का पहला दौर पूरा हो गया है, और बताया जा रहा है कि इस बारे मे दोनों पक्षों के बीच लगभग सहमति हो गई है. ऐ्से संकेत है क़ी अमरीका अगले 18 माह में अपनी फौजे वहा से हटा लेगा। वार्ता का अगला दौर आगामे 25 फरवरी को कतर में होने की संभावना हैं. अमरीका वहा 17 वर्ष के युद्ध में फंसे होने के बाद अब हड़बड़ी से वहा से हाथ खिंच रहा है,लेकिन इन खबरों के बाद अनेक सवाल उठ रहे है कि अमरीकी फौजों की वापसी के बाद अफगानिस्तान में हालात क्या होंगे, तालिबान की अंतरिम सरकार मे प्रमुख भूमिका ्में आ जाने से इस पूरे क्षेत्र में विशेष तौर पर भारत की शांति और सुरक्षा को ले कर असर क़्य़ा पड़ेगा ? अफगान सरकार में तालिबान के मुख्य भूमिका में आ जाने से क्या उन्हे लगातार समर्थन देने वाले पाकिस्तान द्वारा समर्थित आतंकी गतिविधियॉ बेलगाम नही हो जायेगी ? इस वार्ता मे सहमति के मुद्दों के बावजूद तालीबान के फिर उसी पुराने ढर्रे को अपना लेने ने से हालात क्या बदतर नही होंगे, पाकिस्तान फौज में तालिबान के सरपरस्त क्या करेंगे? आदि ,आदि.... सवाल अनेक हैं , पाकिस्तान के लिये तालिबान की प्रमुख भूमिका वाली अंतरिम सरकार जहा खुशी से फूले नही समाने जैसा है वही अमरीका, अफगानिस्तान के साथ साथ भारत के लिये तो मसला और भी चिंता का विषय है.
भारत इस वार्ता से जुड़ा हुआ नही हैं, लेकिन वह स्थति पर लगातार नजर बनाये हुए है क्योंकि वार्ता के परिणाम का भारत पर, उस के सुरक्षा तंत्र के साथ ही इस क्षेत्र की शांति सुरक्षा पर सीधा असर पड़ेगा, विशेष तौर पर अगर वहा पाकिस्तान और अफगानिस्तान में सक्रिय आतंकी तत्व और उग्र होते है तो भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिये और भी गंभीर चिंता उत्पन्न हो जायेगी पड़. तमाम स्थति को ले कर भारत की अपनी चिंताये है.भारत अफगानिस्तान जनता का भरोसेमंद साथी रहा है और अफगान सरकार का भरोसेमंद समर्थक. इस वार्ता को ले कर अभी तक उस की कोई हिस्सेदारी नही रही है लेकिन कल ही भारत के विदेश मंत्रालय ने कहा कि भारत इस क्षेत्र में स्थाई शांति और सुरक्षा के लिये सभी स्वरू्पों की वार्ता में हिस्सा लेगा. गौरतलब है कि कुछ समय पूर्व ्भारत के सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने कहा था, 'भारत को भी तालिबान से बात करनी चाहिए क्योंकि बाकी देश भी आज कल ऐसा कर रहे हैं। विदेश मंत्रालय ने ्कल साफ तौर पर कहा कि अफगानिस्तान में स्थाई शांति और स्थिरता के लिये वहा आतंकियों की शरणस्थलियों का सफाया करना होगा.उस ने कहा हैं कि भारत विभिन्न पक्षों द्वारा किये जा रहे उन प्रयासों का समर्थन करता है जिस से अफगान मसले ्का सभी को मिला कर राजनैतिक समाधान प्राप्त किया जा सके और इसी संदर्भ में वह चाहता हैं कि अफ्गानिस्तान मे प्रस्तावित राष्ट्रपति चुनाव निर्धारित कार्यक्रम के हो ,भारत की चिता है कि आतंकी गतिविधियों ्का जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में विघ्न नही पड़े
वस्तुतः भारत का यही स्टैंड रहा है कि अफगान शांति प्रक्रिया अफगानिस्तान के नेतृत्व में और उसी द्वारा नियंत्रित होनी चाहिये और वह शांति और सुलह के ऐसे प्रयासों का समर्थक रहा हैं कि ्जिस मे सभी को ्साथ ले कर चला जाये. दिलचस्प बात यह है कि पाकिस्तान अपने अपेक्षित तेवर के अनुसार ही कह रहा हैं कि भारत की अफगानिस्तान में कोई भूमिका नही हैं . तालिबान को जिस तरह से वह लगातार समर्थन देता रहा है, उस से साफ है कि तालिबान की मुख्य भूमिका वाली अफगान सरकार से ्वह अपना उल्लू सीधा करेगा . यह सर्व विदित है कि अफगानिस्तान मे विकास कार्यों विशेष तौर पर पुनर्निर्माण कार्यों से भारत नजदीकी से जुड़ा रहा है .वहा की जनता के मन में भी भारत के प्रति खासा अपनापा है.लेकिन ऐसा लगता है कि इस शांति प्रक्रिया से जब तक अफगान सरकार नही जुड़ती हैं वह तालिबान से दूरी बनायेगा रखेगा. वास्तव मे अभी तक राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार इस वार्ता से पूरी तरह से दूर है या उन्हें दूर रखा गया हैं यहा तक कि तालिबान ने उन से बात तक करने से इंकार कर दिया है. वैसे गत नवंबर मे भारत ने तालिबान से कोई बातचीत नही करने के अपने स्टेंड से अलग हट कर पहली बार अपना गैर अधिकारिक शिष्ट मंडल मॉस्को वार्ता के लिये भेजा जिस मे रूस के अलावा अमरीका और पाकिस्तान के प्रतिनिधि शामिल थे.
दरअसल भारत का प्रयास है कि अफगानिस्तान मजबूती से खड़ा हो और साथ ही पाकिस्तान वहा के आतंकी ्तत्वों का विशेष तौर पर भारत के खिलाफ इस्तेमाल नही कर पाये. भारत की चिंता है कि अमरी्का वहा से हटने की हड़बड़ी मे पाकिस्तान के साथ कही कुछ ऐसी सहमति नही कर ले जिस से पाकिस्तान में सक्रिय तालिबान और अन्य आतंकी तत्व जस के तस या यूं कहे और भी उग्र हो जाये. चिंताजनक बात यह है ्कि पिछले चार सालों में अफगान फौजो का आधार अनेक क्षेत्रों से खिसका है और तालिबान की पकड़ विशेष तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में बढी हैं. ऐसी आशंका जताई जा रही है क़ी अमेरिकी फौजों की वापसी होते ही अफगान सरकार और फौज के पांव उखड़ जाएंगे। देश में अराजकता का माहौल खड़ा हो जाने की आशंका है,निश्चय ही ऐसे मौ्के का पाकिस्तान पूरा लाभ उठायेगा .गौरतलब है क़ी अफगानिस्तान में अमरीका समेत नाटो देशों के 14000 फौजे हैं.गौरतलब हैं कि ्तालीबान को वर्ष 2001 मे अमरीका नीत नाटो फौज के सत्ता से खदेड़ दिया था.इस से पूर्व तालिबान ने 1996 मे देश पर कब्जा किया और फिर वहा तालिबानी फरमान के जरिये दमन चक्र किया .
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विशेष अफगान प्रतिनिधि जलमई खलीलजाद और तालिबान के बीच जिन शर्तों पर समझौता हुआ है ,संकेतों के अनुसार अगले डेढ़ साल में पश्चिमी राष्ट्रों के सैनिक पूरी तरह से अफगानिस्तान को खाली कर देंगे। बदले में तालिबान ने आश्वासन दिया है कि वे आतंकवादियों पर पक्की रोक लगा देंगे और वे एसआईएस और अल-कायदा जैसे संगठनों से कोई संबंध नहीं रखेंगे। तालिबान ने अलकायदा और आईएसआईएस जैसे संगठनों के साथ अन्य आतंकी संगठनों को मदद नहीं देने का भरोसा दिया है। तालिबान पर भरो सा वक्त की कसौटी पर कितना खरा उतरेगा यह तो वक्त ही बतायेगा. साभार - लोकमत (लेखिका वीएनआई न्यूज़ की प्रधान संपादिका है)
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