इंदौर, 9 नवंबर (निर्मलकुमारपाटोदी/वीएनआई) आत्म कल्याणी और भारतीय संस्कृति के पोषक सद्गुरू शिरोमणि विद्यासागर का द्र्ढ विश्वास है कि स्वराज्य ्की दशा और दिशा को अगर बदलना है, तो शिक्षा, भाषा, न्याय और सरकार जो चारों एक-दूसरे के पूरक हैं, इनमें वांछित सुधार किये बिना वांछित परिवर्तन नहीं हो सकेगा। चारों क्षेत्रों में स्वाधीनता के मूल्यों की आवश्यकता के अनुसार समग्र सुधार करना होगा, तब ही भारत और भारतीयता से देश सहीं मायनें में साक्षात्कार कर सकेगा.
सदगुरु का स्पष्ट मानना है कि शिक्षा को सुलभ और भारतीय परंपरा के अनुरूप बनाने से ही राष्ट्र की तस्वीर को बेहतर बनाया जा सकेगा। उन का मानना है. भारत में शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं ्में अनिवार्य होना चाहिए, तब ही भारत की तस्वीर बदल सकती है।शिक्षा भारतीय भाषाओं के माध्यम से दी जायें साथ ही दुनिया की भाषाओं के ज्ञान के लिए हमारी भाषाओं के ज्ञान की खिड़कियां खुली रहे शिक्षा लक्ष्य तक पहुँचने का एक संकेत है।आत्म कल्याणी और भारतीय संस्कृति के पोषक संत शिरोमणि विद्यासागर का मत हैं कि आंग्ल भाषा भारत देश की संस्कृति, इतिहास, जीवनदर्शन ्पर प्रतिकूल प्रभाव डाल कर हमारे स्वाभिमान, एवं आस्था को नष्ट कर रही है। साहित्य, संस्कृति एवं समाज का दर्पंण होता है। संस्कृति भाषा से संबंध रखती है। हमारा वैचारिक आदान-प्रदान, शिक्षण, पठन-पाठन, चिन्तन-मनन, लेखन-वाचन सब कुछ स्वभाषा में होना चाहिए। आचार्य श्री का विचार हैं "आप माँ-पिता के साथ किस भाषा में बात करते हैं ? परिवार के साथ आप किस भाषा में बात करते हैं ? अपनी भावाभिव्यक्ति किस भाषा में करते हैं ? मातृभाषा के बिना तो कर ही नहीं सकते।" आचार्य श्री का कथन हैं " आज पूरे देश के शहरों में जहां भी जाओ भारतीय भाषाओं का लोप किया जा रहा है। यदि मेरी बात अच्छी लगती हो, तो आप लोगों को इस दिशा में अभियान चालू कर देना चाहिए। यह देश की संस्कृति को सुरक्षित रखने का पवित्र अभियान होगा। मर्यादा सिखाने वाली संस्कृति को सुरक्षित करने का स्वाभिमान जागृत करो, यही एक मात्र देशभक्ति है।"
आचार्य श्री का विचार हैं "भाषा के माध्यम से भावों का आदान-प्रदान होता है। ऐसे भावों का प्रचार-सम्प्रेषण करें जिससे भारत में भारत वापस लौट आयें। देश की उन्नति आप नहीं कर सकते,भाषा की स्वतंत्रता जब तक नहीं आ सकती हैं।" आज देशी-विदेशी विद्वानों ने, दार्शनिकों ने, वैज्ञानिकों ने कहा है-जिस राष्ट्र में अपनी भाषा नहीं उसका कभी भी ठीक से विकास नहीं हुआ, 'न भूतों, न भविष्यति ।"मातृभाषा वो जलधार है, जो शिक्षा की प्यास को मिटा सकती है। भाषा तो औषधि का काम करती है। लोककल्याण के भावक विद्यासागर का मानना है कि विद्यालय, विद्यार्थी के समग्र विकास, सामाजिक, राष्ट्रीय प्रगति, सभ्यता व संस्कृति के उत्थान के केन्द्र होते हैं। अनेक विश्व प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र भारत भूमि पर संचालित थे। तप: पूत का चिंतन है कि शिक्षा के प्राचीन ज्ञान-केन्द्र, तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वालभी, सौमपुरा, ओडांदपुरी में ज्ञानार्जन के लिए विदेशों से विद्यार्थी आते थे, ज्ञान की उस प्राचीन विशेषता को पुनर्जीवित करना होगा। संविधान सम्मत अधिकारिक राजभाषा हिंदी एवं प्रादेशिक भाषाओं को शिक्षा, प्रशासन और न्याय के क्षेत्र में समुचित महत्व दिया जाय। आचार्य श्री का उदघोष है-"अपना देश अपनी भाषा", "इण्डिया हटाओ-भारत लौटाओ"। गुरुकुलों के प्राकृतिक परिसरों में ज्ञानी-ध्यानी, तपस्वी, कला-कौशल में निपुण गुरुओं के मार्गदर्शन में शिष्य-शिष्याएँ में छुपी अनंत संभावनाओं को प्रकट करते थे।हमें रणनीति और राजनीति से ऊपर उठकर प्राचीन भारत की नीति को अपनाने की जरुरत है। विचार करिए आज भारत के ९० प्रतिशत इंजीनियर बेकार हैं। यह सुनकर बुरा लगता है। ७३ वर्षों में भी हमें जो होना चाहिए, कुछ कर नहीं पा रहे है। आज की शिक्षा कठिन दौर से गुज़र रही है। निरुद्देश्य शिक्षा कोई मूल्य नहीं रखती है। वह तो ऋण को ही बढ़ाने वाली है। जबकि रोजगार की प्राप्ति नहीं हो रही है। सोचने की जरुरत है हम ऋणी क्यों होते जा रहे हैं ? वास्तविक उन्नति तक क्यों नहीं पहुंच पा रहे हैं ? परलोक को स्वीकार कर रहे हैं, इहलोक को नहीं देख पा रहे हैं। विदेशी भाषा और शिक्षानीति पर चल कर हम कहीं नहीं पहुंचने वाले हैं। आप कर्ता हैं, कार्य की दिशा में बढ़े, कर्म को प्रधानता दें। सही दिशा और सही शिक्षा नीति के लिए संशोधन हो। विद्यालय का वास्तविक अर्थ जाने।
आचार्य शी ने कहा " मेरे गुरु ज्ञानसागर जी ने कहा था मैं भारत के रथ को देखना चाहता हूँ। प्रतिभा रथ के रूप में हमें सम्पन्न संस्कारों से युक्त भारत देखना है। भारत गुरु से लघु इसलिए हुआ, क्योंकि वह संस्कारों से विमुख हो गया है। भविष्य की बातें करते हैं, वर्तमान की ओर दृष्टि नहीं जा रही है। ऐसा कर्त्तव्य करों कि संसार का तीर बन जाओ, इस धरती के वीर बन जाओ। सब छोड़ देना, नीति और न्याय को नहीं छोड़ना। तब ही भारत को शिखर पर पहुँचाया जा सकता है। मातृभाषा वो जलधार है, जो शिक्षा की प्यास को मिटा सकती है। भाषा तो औषधि का काम करती है। लोककल्याण के भावक विद्यासागर का मानना है कि विद्यालय, विद्यार्थी के समग्र विकास, सामाजिक, राष्ट्रीय प्रगति, सभ्यता व संस्कृति के उत्थान के केन्द्र होते हैं। अनेक विश्व प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र भारत भूमि पर संचालित थे। तप: पूत का चिंतन है कि शिक्षा के प्राचीन ज्ञान-केन्द्र, तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वालभी, सौमपुरा, ओडांदपुरी में ज्ञानार्जन के लिए विदेशों से विद्यार्थी आते थे, ज्ञान की उस प्राचीन विशेषता को पुनर्जीवित करना होगा। शिक्षा भारतीय भाषाओं के माध्यम से दी जाय। दुनिया की भाषाओं के ज्ञान के लिए हमारी भाषाओं के ज्ञान की खिड़कियां खुली रहे। संविधान सम्मत अधिकारिक राजभाषा हिंदी एवं प्रादेशिक भाषाओं को शिक्षा, प्रशासन और न्याय के क्षेत्र में समुचित महत्व दिया जाय। आपका उदघोष है-"अपना देश अपनी भाषा", "इण्डिया हटाओ-भारत लौटाओ"। गुरुकुलों के प्राकृतिक परिसरों में ज्ञानी-ध्यानी, तपस्वी, कला-कौशल में निपुण गुरुओं के मार्गदर्शन में शिष्य-शिष्याएँ में छुपी अनंत संभावनाओं को प्रकट करते थे।हमें रणनीति और राजनीति से ऊपर उठकर प्राचीन भारत की नीति को अपनाने की जरुरत है। विचार करिए आज भारत के ९० प्रतिशत इंजीनियर बेकार हैं। यह सुनकर बुरा लगता है। ७३ वर्षों में भी हमें जो होना चाहिए, कुछ कर नहीं पा रहे है। आज की शिक्षा कठिन दौर से गुज़र रही है। निरुद्देश्य शिक्षा कोई मूल्य नहीं रखती है। वह तो ऋण को ही बढ़ाने वाली है। जबकि रोजगार की प्राप्ति नहीं हो रही है। सोचने की जरुरत है हम ऋणी क्यों होते जा रहे हैं ? वास्तविक उन्नति तक क्यों नहीं पहुंच पा रहे हैं ? परलोक को स्वीकार कर रहे हैं, इहलोक को नहीं देख पा रहे हैं। आप कर्ता हैं, कार्य की दिशा में बढ़े, कर्म को प्रधानता दें। सही दिशा और सही शिक्षा नीति के लिए संशोधन हो। विद्यालय का वास्तविक अर्थ जाने। आज विकास के नाम पर अंधानुकरण चल रहा है। जिसे भेड़ चाल कहा जाता है। भारतीय युवा विदेशी सभ्यता को अपनाने के लिए कसरत कर रहे हैं, जो कि मात्र पतन का कारण है।
सरल आत्मानुभवी विद्यासागर ने जनवरी माह की पहली तारीख़ को विदेशी सभ्यता से दूर रहने की सीख देते हुए व्यक्त किया कि तारीख़ नहीं भारतीय तिथि को मानकर मुहूर्त के अनुसार माँगलिक कार्य किये जाते हैं।
भारतीयता के पोषक विद्यासागर का कहना है कि भारत का नया साल जनवरी से प्रारंभ नहीं होता है, बल्कि चैत्र महिने से होता है। लेकिन विदेशी संस्कृति का भारतीय लोगों के दिलोदिमाग़ में स्थान बना लेने के कारण ही जनवरी की एक तारीख को ही नए साल का आग़ाज़ मानकर ख़ुशियाँ मना लेते हैं। हमारा नया साल चैत्र माह के प्रारंभ होते ही शुरू हो जाता है। नये साल की खुशी चैत्र माह से मनानी चाहिए, विदेशी जनवरी पर नहीं। लेकिन सब कुछ विपरित हो रहा है। आवश्यकता यह है कि भारतीय विदेशी संस्कृति को तिलांजलि देकर देशी संस्कृति को अपनाये। तभी जीवन में उम्मीदों की बयार बहने के साथ सफलता मिलेगी।
सदगुरु विद्यासागर की असीम अनुकंपा और दूरदृष्टि से कन्या आवासीय शिक्षण संस्थान पल्लवित, पुष्पित व फलित हो रहे हैं। जहाँ शिक्षा अर्थोपार्जन का साधन नहीं अपितु ज्ञान दान की पावन प्रक्रिया है। मनुष्य बुद्धि व गुणों के विकास और संस्कारों के संवर्धन से मानव बने और भारत प्रतिभा में निमग्न हो।जिनका ध्येय स्वस्थ्य तन, स्वस्थ्य मन, स्वस्थ्य वचन, स्वस्थ्य धन, स्वस्थ्य वन, स्वस्थ्य वतन, स्वस्थ्य चेतन है। महागुरु के आशीर्वाद के प्रसाद से गुरुकुल व गुरु-शिष्य परंपराओं की अनूठी परछाईं है-"'प्रतिभा-स्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ।" जहां बालिकाओं का जीवन संवारने के लिए :-" जीवन का निर्वाह नहीं निर्माण" सूत्र को लक्ष्य करके जबलपुर (मध्यप्रदेश), चन्द्रगिरी, (छत्तीसगढ़), रामटेक,(नागपुर-महाराष्ट्र), पपौरा (टीकमगढ़-मध्यप्रदेश) और इंदौर (मध्यप्रदेश) में आपके मार्गदर्शन से बालब्रह्मचारिणी विदुषी प्रशिक्षित शिक्षिकाएं कन्याओं के उज्जवल भविष्य के निर्माण हेतु निष्काम, निस्वार्थ अहर्निश सेवाभाव से शिक्षा प्रदान करने का दायित्व परिपूर्ण कर रही हैं। सीबीएसई से मान्यता प्राप्त शिक्षा के ये सँस्थान आज के आधुनिक परिवेश में प्राचीन गुरुकुलों की स्मृति को पुनर्जीवित कर रहे हैं।
दूरदृष्टा योगीश्वर के आशीर्वाद से सन् १९९२ से युवकों के लिए "श्री भारतवर्षीय दिगंबर जैन प्रशासकीय प्रशिक्षण सँस्थान" जबलपुर में संचालित है। यहाँ के लगभग पांच सौ युवक मध्यप्रदेश सरकार में सेवारत हैं। दिल्ली में यूपीएससी एवं आईएएस के लिए 'अनुशासन', इंदौर में "आचार्य ज्ञानसागर छात्रावास", 'प्रतिभा-प्रतिक्षा' तथा भोपाल में 'अनुशासन सँस्थान' जो संघ व न्यायिक सेवा परीक्षाओं की तैयारी हेतु संचालित है।
भारत के इतिहास में जब भी संकट, विघ्न, बाधाएँ उत्पन्न हुई हैं, तब समाधान के लिए किसी युगपुरुष का अवतरण हुआ है। वर्तमान में इसी परंपरा में विलक्षण संत कन्नड़ भाषी, कवि, लेखक, प्रकाण्ड पण्डित, अध्यात्म वेत्ता, कठोर आत्म तपस्वी और परमउपकारी विद्यासागर हमारे बीच में हैं। वे हैं तो दिगंबर मुनि, आचार्य, लेकिन जैन समाज ही नहीं अजैन समाज के लोग भी उनके प्रति अगाध श्रद्धाभाव रखते हैं। आपकी वाणी को सभी समुदाय के लोग पवित्र वचनों की तरह आत्मसात करते हैं। आपसे मिलने प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, शंकराचार्य और हर ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र की विभिन्न विचारधार की सुविज्ञ हस्तियाँ पहुँचती रही हैं।शोभना/वी एन आई
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