नई दिल्ली, 25 मार्च (शोभना जैन/ वीएनआई) अपने परिजनो के लिये वतन से दूर एक अनजान जमीन पर दो जून की रोजी रोटी कमाने गये 39 भारतीयों की खैरियत के बारे मे पिछले चार साल से जारी भारी अनिश्चितता आखिरकर खत्म हो गई है.सरकार ने घोषणा कर दी है कि इराक के मोसुल शहर से अगवा ये भारतीय आईएस आतंकियो द्वारा मारे जा चुके है.लेकिन मोसुल त्रासदी से पर्दा उठ जाने के बाद अनेक सवाल उठ खड़े हुए है, जो जबाव चाहते है.
मोदी सरकार मई 2014 मे सत्ता मे आई और ठीक एक माह बाद 7-9 जून इन भारतीय मजदूरो के अपहरण की खबर आई.तभी से यानि पिछले चार साल से सरकार अपने सूत्रो से मिली खबरो के आधार पर हालांकि उम्मीद दिलाती रही कि ्ये सभी भारतीय जिंदा है और परिजन भी इस भरोसे पर भरोसा कर इंतजार करते रहे. परिजनो की ऑखे भी इंतजार करते करते पथरा गई थी लेकिन एक उम्मीद बनी हुई थी कि सरकार जब भरोसा दिला रही है तो शायद वे लौटेंगे लेकिन अब इस खबर से न/न केवल उनके परिजन बल्कि पूरा देश स्तब्द्ध ही नही है बल्कि मोसुल त्रासदी ने अनेक सवाल खड़े कर दिये है. सवाल ये कि क्या इस मामले की 'मिस हेन्डलिंग' हुई, सरकार किन सबूतो के आधार पर पूरे भरोसे से यह कैसे कहती रही है कि वे जिंदा है? और परिजन इसी उम्मीद और भरोसे के चलते सरकार पर भरोसा करते रहे. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के साथ इन चार वर्षों मे उन की कितनी ही मुलाक़ाते करवाई गई जिससे उन का भरोसा बना रहा लेकिन अब इस खबर से वे सभी ्स्तब्ध है, ऑसुओं का सैलाब है कि रूकने का नाम नही ले .सवाल यह भी है कि सरकार ने इस अति संवेदनशील खबर को गत 20 मार्च को संसद मे देने की बजाय परिवार जनो को पहले यह खबर क्यों नही दी, आखिर सरकार ने ऐसा क्यों किया? हालांकि, इन बंधकों में से अपनी जान बचाकर भारत लौटने वाले हरजीत मसीह ने पहले ही दावा किया था कि बाकी सभी 39 भारतीय दुर्दांत आतंकी गुट आईएस द्वारा मार दिए गए हैं. लेकिन सरकार ने उनके इस दावे को मानने से इनकार कर दिया.आखिर किस आधार पर सरकार ने उस के बयान पर विश्वास नही किया.विदेशो मे रोजी रोटी कमाने के लिये जाने वाले लोगो के लिये बने नियमो का क्यों इस तरह से पालन नही हो पाता है जिस से वे इस तरह के चंगुल मे फंस जाते है?आखिर वो स्थतियॉ कब पैदा होगी जब वे रोजगार कमाने की हताशा मे ऐसी विकट परिस्थतियो मे ्नही फंस जाये...
चार साल पहले 7-9 जून 2014 में भारत से मोसुल में भवन निर्माण की एक कंपनी मे काम करने गए इन मजदूरों को आतंकियों ने अगवा कर लिया था.बताया गया कि मसीह नाम का एक व्यक्ति खुद को बांग्लादेश से आया मुस्लिम बता कर बच निकला. बाकी 39 भारतीयों को बदूश ले जा कर मार डाला गया. अगवा भारतीयों को बदूश शहर ले जाए जाने के बारे में जानकारी उस कंपनी से मिली, जहां ये भारतीय काम करते थे. पिछले साल जुलाई में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने साफ कह दिया कि जब तक सबूत नहीं मिल जाते, वो अगवा किए भारतीयों को मृत नहीं मान सकतीं. ऐसे में बड़ा सवाल ये कि अगर 2014 में ही 39 भारतीयों की मौत हो गई थी, तो चार साल बाद इसका खुलासा क्यों हुआ? क्या सरकार जान-बुझकर भारतीय नागरिकों की मौत की खबर छिपा रही थी?
सवाल कई है... क्या सरकार को ऐसे अपुष्ट सबूत ्मिल रहे थे कि ये सभी भारतीय मारे जा चुके है तो वह पूरे भरोसे से परिजनो को उनकी खैरियत क्यों देती रही और सरकार के इसी भरोसे के चलते परिजनो को उम्मीद रही कि उन के अपने जिंदा है. दोनो विदेश राज्य मंत्री सर्व श्री एम जे अकबर व जनरल वी के सिंह दोनो ने ही इराक जा कर तथ्यो का पता लगाने की कोशिश की.गौरतलब है कि गत जुलाई मे ही इराक के विदेश मंत्री ने भी इन भारतीयों की खैरियत को लेकर पक्के तौर पर कहने से इंकार कर दिया. कुर्दिश इंटेलिजेंस ने साल 2016 में ही बता दिया था कि आतंकी संगठन आईएसआईएस के हाथों अगवा भारतीयों की हत्या हो चुकी है. इन तमाम परिस्थतियों की पृष्ठभूमि में सरकार् के इस अति विश्वास की वजह क्या थी? क्या यह नही माना जाये कि इस मामले की मिस हेन्डलिंंग हुई? .
वैसे विपक्ष के आरोपो के बीच विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का तर्क है कि सरकार हमेशा से परिवार वालों के संपर्क में थी, लेकिन संसद का सत्र चलने की वजह से वजह से उनकी ड्यूटी थी कि वो सदन को सूचना पहले दें.्विपक्ष का तर्क था कि सरकार अगर संसद सत्र के दौरान कोई नीतिगत या प्रशासनिक फैसला ले, तो उसके लिए जरूरी होता है कि वो पहले सदन को सूचित करे और उसके बाद पब्लिक को. लेकिन 39 लोगों की मौत की खबर न तो कोई नीतिगत फैसला था, न प्रशासनिक, यह एक बेहद संवेदन्शील मानवीय मामला था, जिस पर सरकार ने संवेदनशीलता नही दिखाई.बहरहाल सता, विपक्ष के आरोपो से अलग हट्कर मोसुल त्रासदी से निबटने को ले कर अनेक सवाल उठ खड़े हुए है जो जबाब चाहते है. साभार - लोकमत (लेखिका वीएनआई न्यूज़ की प्रधान संपादिका है)
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