नेपाल से विश्वास बहाली कैसे हो?

By Shobhna Jain | Posted on 7th Apr 2018 | VNI स्पेशल
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नई दिल्ली, 07 अप्रैल, (शोभना जैन/वीएनआई) नेपाल के हाल के चुनाव मे वामपंथी गठबंधन को प्रचंड बहुमत मिलने के बाद एक ताकतवर प्रधानमंत्री के रूप में उभरे श्री खड़ग प्रसाद ओली की भारत यात्रा पर न/न केवल नेपाल और भारत बल्कि चीन, पाकिस्तान सहित क्षेत्र सभी की नजरे है. अहम बात यह है कि चीन के साथ नजदीकियॉ बढाने और भारत विरोधी रणनीति अपनाने के लिये चर्चित श्री ओली ने नेपाल की परंपरागत नीति निभाते हुए अपनी पहली विदेश यात्रा भारत की है. श्री ओली 6 से 8 अप्रैल तक भारत यात्रा पर है. 

पिछले कुछ समय से विशेष तौर पर भारत नेपाल सीमा पर 2015-16 की नाकेबंदी के बाद से दोनो देशो के रिश्ते उथल पुथल भरे दौर से गुजर रहे है. नाकेबंदी को ले कर परेशान नेपाली जन में भारत विरोधी भावनायें मुखर दिखी और इन भावनाओ को हवा दे कर भारत की छवि को भरोसेमंद साथी की बजाय दखलदांज पड़ोसी के रूप मे दुष्प्रचारित भी की गई. इसी आलम में हुए चुनाव मे ओली ने भी भारत विरोधी रणनीति अपनाई. ऐसे मे और भारी बहुमत से  विश्वास प्रस्ताव जीतने के बाद एक मजबूत बहुमत वाली सरकार के प्रधान मंत्री के रूप मे श्री ओली की यह यात्रा  भावी भारत नेपाल संबंधो के लिये खासी अहम मानी जा रही है. 

दरअसल  नेपाल मे मधेसियों के समर्थन दिये जाने  को ले कर और नेपाल सरकार पर संविधान मे संशोधन का दबाव बनाने के लिये  नेपाल मे एक बड़े वर्ग द्वारा भारत को  जिस तरह से कठघरे मे खड़ा किया गया उस से इस वर्ग ने चार माह तक नाके बंदी से परेशान जनता में भारत विरोधी लहर को हवा दी. इस पूरी पृष्ठ भूमि में भारत यात्रा से ठीक पहले श्री ओली का यह बयान खासा मायने रखता है कि उनकी यात्रा का मकसद मुख्यत: कोई नया समझौता करने की जगह भारत और नेपाल के बीच हुए पुराने समझौतों को क्रियान्वित करने पर होगा। ओली ने कहा, ‘मैं राष्ट्र हित के खिलाफ कोई समझौता नहीं करूंगा। हम किसी भी ऐसी चीज से बचते हुए जो देश के लिए अपमानजनक हो, भारत के साथ विश्वसनीय संबंध कायम रखना चाहते हैं।' सवाल उठता है कि क्या शक्को-शुबहे और तनातनी के बाद भरोसा कायम करने की यह कवायद कितनी कारगर साबित होगी और एक अरसे तक भारत के परंपरागत मित्र रहे नेपाल को भारत फिर से अपने भरोसे मे ले सकेगा ? 

खास तौर पर ऐसे मे जबकि  नाकेबंदी के असर बतौर 2016 और ओली सरकार को जाना पड़ा, और ओली की इस बात को ले कर् भारत से नाराजगी किसी से छुपी नही है.वर्ष 2015-16 में नेपाल सीमा पर हुई नाकेबंदी के कारण नेपाली जनता की परेशानियां बढ़ीं। भारत के साथ बढती तनातनी के दौर मे नेपाल पर ऑखे टिकायें चीन के लिये मदद का हाथ बंटाने के बहाने नजदीकी बढ़ाने का यह मौका था , जिसे उस ने इस्तेमाल किया.इसी के चलते सवाल उठने लगे कि क्या हम पड़ोसी और प्रगाढ सामाजिक सांस्कृतिक रिश्तो वाले नेपाल के साथ कही अपनी नीति से भटक तो नही गये ? निश्चित तौर पर ओली की भारत यात्रा नेपाल के साथ विश्वास बहाली और नये दौर मे पुराने प्रगाढ रिश्तो ्को एक नई परिभाषा के रूप मे परिभाषित करने का अवसर भी बन सकती है. 

दरअसल 2016 मे जब श्री ओली नाकेबंदी के दौर मे प्रधान मंत्री के रूप मे भारत आये थे तो उपरोक्त पृष्ठभूमि मे देशो के बीच शक्को-शुबहा और तनातनी का आलम था. इसी के बाद से न/न केवल भारत नेपाल रिश्तो मे कड़वाहट बढी बल्कि श्री ओली व मोदी सरकार के बीच शक्को-शुबहे का माहौल बढा. चीन ने नाकेबंदी की स्थिति का पूरा फायदा उठाते हुए ओली  सरकार के साथ धड़ाधड़ उर्जा सप्लाई क्षेत्र मे सहयोग देने संबंधी दस सूत्री अहम  समझौते कर भारत पर उस की निर्भरता एक हद तक कम कर दी, साथ ही नाकेबंदी से परेशान नेपाली जन का भरोसा जीतने की कोशिश की. बहरहाल उस के बाद श्री ओली की सरकार् तो जाना पड़ा लेकिन पर चीन् साथ नेपाल की नजदीकियॉ बढ गई.नेपाली जनता के बीच भारत- विरोधी दलों और तत्वों  ने प्रचार किया कि भविष्य में भारत फिर से नाकेबंदी करवा सकता है। इसलिए विकल्प के तौर पर चीन से व्यापार बढ़ाया जाए।  गौरतलब है कि वर्ष 1988-89 में भी नेपाल सीमा पर नाकेबंदी हुई थी। दुबारा नाकेबंदी 2015-16 में हुई। 

श्री ओली  पिछले नंवबर मे अपनी पार्टी  और माओवादियों के वामपंथी गठबंधन के नेता के बतौर भारत के खिलाफ आक्रामक रणनीति अपनाते हुए भारी बहुमत से विजयी हुए,देश के तीन चरणो वाले ्सभी निकायों मे भी उन के गठबंधन को भारी बहुमत मिला. चुनाव के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल ने नाकेबंदी को मुद्दा बनाते हुए भारत विरोधी कार्ड खेला। इस प्रचार का सबसे ज्यादा लाभ ओली को ही हुआ । उनकी पार्टी को खासी सीटें मिलीं ,अब ओली प्रधानमंत्री हैं। वे भारत  और चीन दोनो ही के साथ  बराबरी के स्तर पर संबंधों पर जोर दे रहे हैं, हालांकि चीन के साथ उन की बढती नजदीकियां जगजाहिर है। लंबी राजनैतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहे नेपाल के लिये दरअसल पिछले एक दशक मे ओली सरकार नेपाल की पहली स्थिर सरकार है, जिस से नेपाल की जनता को भी बड़ी अपेक्षायें है, ऐसे मे भारत और चीन दोनो ही के साथ उस के रिश्तों का स्वरूप क्या रहेगा ?यह एक सवाल है!! जिस का जबाव भविष्य के गर्भ मे ही है.

इन परिस्थितियों मे  हाल ही मे चीन का यह बयान अहम है कि 'स्वतंत्र विदेश नीति' का पालन करने के लिये व नेपाल सरकार की प्रतिबद्धता की वह प्रशंसा करता है, लेकिन  साथ ही सतर्कता बरतते हुए उस ने  कहा कि  चीन, भारत और नेपाल एक दूसरे के महत्वपूर्ण पड़ोसी  है और उसे उम्मीद है कि हम सब मिल कर विकास के लिये काम करेंगे. दरअसल क्षेत्र मे चीन के बढते विस्तारबंदी मंसूबे और विकास कार्यक्रमो के नाम पर  उसके द्वारा दी जा रही दी जा रही भारी आर्थिक मदद से भारत सतर्क  है. माल्दीव  घटनाक्रम इस का स्पष्ट परिचायक है. चीन के साथ पिछले वर्ष 'बी आर आई' समझौते  से चीन द्वारा  नेपाल को भारी विकास सहायता दी जाने वाली है खासतौर पर श्री ओली ने २०१६ मे चीन के साथ नेपाल को आर्थिक सहायता को ले कर जो समझौते किये थे उन के जरिये भी चीन का नेपाल मे अब भारी निवेश होने की उम्मीद है.इन के  साथ ही  बड़ी अर्थव्यवस्था वाला चीन-नेपाल मे  रेलवे नेटवर्क  सहित आधार भूत ढॉचे को विकसित करने संबंधी अनेक अहम परियोजनायो से जुड़ रहा है, जिन के बन जाने पर उस की उ्पस्थिति तो बढेगी ही, नेपाली जनता को भी वह भरमा सकेगा.

नाकेबंदी के घटनाक्रम से भारत ने सबक लिया  है, और वह सावधानी के साथ नेपाल के साथ अपने रिश्तो मे विश्वास बहाली की राह पर है, इसी के तहत भारत ने ओली सरकार के शपथ ग्रहण से पहले ही विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को उन्हे बधाई देने के लिये उन्हे नेपाल भेजा और उन्होने ओली को  भारत आने का न्यौता भी दिया. भारत के लिये अब निश्चित तौर पर इन हालात मे नेपाल के साथ दूरियों वाले पिछले दिनो के घटनाक्रम को पीछे छोडकर वही पुराने भरोसेमंद प्रगाढ पड़ोसी वाले रिश्ते को नयी तरह से परिभाषित करने का अवसर है. उसे वर्तमान ्विकास कार्यक्रमो के तेजी से क्रियान्वन पर ध्यान देना होगा. ओली ने भारत आने से पूर्व कहा भी है कि वह पंचेश्वर बहुउद्देशीय परियोजना संबंधी समझौतो के क्रियान्वन पर चर्चा करेंगे.गौरतलब है कि नेपाल का 70 प्रतिशत आयात भारत से ही होता है.दोनो देशो के बीच खुली सीमा है बड़ी तादाद मे नेपाली भारत मे रोजगार मे लगे है. भारत-नेपाल मैत्री व शांति संधि दोनो के लिये खास मायने रखाती है, इससे दोनो देशो के बीच आपसी संपर्क विशेष तौर पर सुरक्षा संबंध और बढे है. इस संधि को जल्द ही संशोधित  किया जायेगा. 
    
ओली भारत से अच्छे संबंधों की बात तो कर रहे हैं, लेकिन उनके तमाम आश्वासनों के बावजूद ओली सरकार की चीन के साथ नजदीकियॉ बढाने की नीति की चर्चा के वक्त यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत यात्रा के बाद श्री ओली के चीन की भी यात्रा पर जाने की खबरे है जहा पर् कई अहम समझौते होने की भी उम्मीद है. इन्ही समीकरणों के बीच नेपाल अब चीन से ही नहीं, पाकिस्तान से भी नजदीकी बढ़ाने को इच्छुक है। चीन के साथ बढती नजदीकियों के बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहिद खान अब्बासी जिस तरह से  हाल ही में श्री ओली को अचानक बधाई देने के नाम पर दक्षेस को 'मजबूत' करने का एजेंडा बैग में डाले से नेपाल पहुंचे, वह भी इन्ही आपस मे जुड़ती कड़ियों का अंग है.वैसे नेपाल ्की घरेलू राजनीति मे अपनी पकड़ मजबूत करने के साथ ही ओली ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से नेपाल के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का आग्रह कर नेपाल की एक नयी छवि का खाका भी दिया है. बता दे नेपाल भारत का परंपरागत मित्र और उस का भरोसेमंद पड़ोसी रहा है, दोनो देशो के बीच गहरे समाजिक सांस्कृतिक संबंध रहे है.  यात्रा दोनो के लिये ही बीति-ताहि बिसार दें की नीति अपनाते हुए आपसी विश्वास बहाली की कवायद के रूप में परिभाषित कर सकते है .सभार : लोकमत (लेखिका वीएनआई न्यूज़ की प्रधान संपादिका है)


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