नई दिल्ली, 3 मई (शोभना/अनुपमाजैन,वीएनआई) सुबह का वक्त हैं, आसमान में काली घटायें छायी हैं, कोरोना तेजी से एक के बाद एक जानें लील रहा है,माहौल में महाविलाप का क्रंदन हैं,हाहाकार मचा हैं...एक बेहद उदास सुबह ...इसी क्रंदन के बीच तपस्वी संत जैन मुनि विद्यासागर के संघस्थ शिष्य मुनि महासागर का जैन आध्यात्मिक चेनल "पारस" पर प्रवचन आ रहा हैं. मुनि श्री कह रहे हैं "जैन दर्शन में 'अपरिग्रह' की अवधारणा पर सब से ज्यादा जोर दिया गया हैं, लेकिन महा संकट के इस दौर में कुछ लोग इस बीमारी के ईलाज के लियें जरूरी इंजेकशन, टीकें आदि सभी संग्रह कर ओनें पोनें दामों पर बेच रहे हैं यानि अपनी ही मानव जाति के विनाश में लगे हैं,जैसा कि हिटलर जैसे तानाशाह ने इंसानों को गेस चेम्बर में मरवा दिया था. ऐसे लोग इस तरह के हेय कृतों से धन कमानें में लगे हैं. लेकिन अच्छी बात यह हैं कि दर दर भटक रहें बीमारों के लियें कुछ भले लोगों ने अपने मे दरवाजें खोल दिये हैं, वे निःस्वार्थ भाव से सेवा में लगे हैं. मुनि श्री कह रहे हैं" निश्चय ही सभी लोग अगर खास तौर पर विषम परिस्थतियों में अपरिग्रह की भावना अपनायें तो यह समाज में समरसता कायम कर सकती हैं, असंतोष कम कर सकती हैं ...
दरअसल कोई भी धर्म सही मायनें में मानवीय मूल्यों को जीवन में अंगीकार करने का संदेश देता है . धर्म की मूल अवधारणा न/न केवल मानवीय मूल्यों बल्कि जीव दया की अवधारणा होती हैं. विषम हालात में आज देश विदेश में महावीर जयंती मनाई जा रही हैं.छठीं शताब्दी ई.पू जन्में, जैन धर्म की चौबीसवें व अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म कल्याणक दिवस यानि जन्म जयंती. भारत में आध्यात्मिक क्रांति लाने वाले भगवान महावीर ने हजारों साल पहले ्जीयों और जीनें दो का जो संदेश दिया था, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है. खास तौर पर कोरोना के हाहाकार और प्रलाप तथा आपाधापी में में आज अगर अपरिग्रह, अनेकांत की भावना अपनाई जायें तो आज सड़कों पर अपनें परिजनों के लियें दर दर टक्कर खा रहें लोगों को ज्यादा नहीं सहीं लेकिन कुछ तो राहत मिलेगी. दरअसल इस काल में भगवान महावीर के अपरिग्रह, अहिंसा, अनेकांत,पस्परोपग्रहो जीवानाम्, क्षमा्भाव के सिद्धांत को अपना्ने की आज सब से ज्यादा जरूरत हैं.
दार्शनिक तपस्वी संत आचार्य श्री विदयासागर जी कहते हैं "जैन दर्शन एक वृहद दर्शन हैं.यह विचारधारा मूलतः नैतिकता और मानवतावादी है.तीर्थकर महावीर का दर्शन बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय से बढ़कर सर्वजीव हिताय और सर्वजीव सुखाय के लियें है, यह अवधारणा हैं उस लोकतांत्रिक व्यवस्था की जहा ओ शेर और बकरी एक ही घाट से पानी पीती है, किसी को किसी से भय नहीं, समरसता वाला समाज" उन्हीं के संघस्थ शिष्य मुनि पुंगव सुधासागर जी महाराज के अनुसार" महावीर के आचार दर्शन पर आधारित अर्थव्यवस्था और समाज व्यवस्था अपनाने से संसार की सभी अव्यवस्थाओं के समाधान की दिशा में प्रभावी कदम उठायें जा सकते है. मानवीय मूल्यों और संस्कारों से दीक्षित कोई भी व्यक्ति न/ न केवल परिवारिक ईकाई को सु्दृढ और सकारात्मक बनाता है बल्कि समाज, देश और विश्व भी इसी सकारात्मकता से दीक्षित व्यक्तियों से परिपूर्णता प्राप्त करते हैं".
प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ से शुरू हुयें जैन धर्म को महावीर स्वामी (599 ई.पू.) ने तीर्थंकरों के धर्म और परम्परा को एक सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया. जैन धर्म के जिन के आधार पर इस धर्म का नाम जैन धर्म पड़ा ,इसका अर्थ था ऐसे व्यक्ति जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ले. जैन दर्शन में अहिंसा, न/न केवल शारीरिक हिंसा के खिलाफ हैं, बल्कि वह मन वचन की हिंसा के खिलाफ है.यहा अगर हम अपरिग्रह के साथ जैन धर्म के महत्वपूर्ण अनेकांत के सिद्धांत की व्याख्या पूरे संदर्भ को समझनें के लियें करें तो अनेकांत सिद्धांत का अर्थ है, सत्य को उसके सभी पहलुओं के साथ देख्ना चाहियें, श्वेतपिच्छाचार्य मुनि श्री विद्यानन्द जी के शिष्य एलाचार्य श्रुत सागर जी महाराज के अनुसार "अगर हम अनेकांतवाद को अपनाते हुए दूसरों के विचारों की भी अहमियत समझें, तो हम एक-दूसरे के लिए एक बेहतर दुनिया का निर्माण कर सकते हैं.जिओ और जीने दो की भावना को सहीं मायनें में जीवन में उतार सकेंगें और आज दुनिया और देश में व्याप्त टकराव वऐमनस्य को काफी हद तक कम किया जा सकेगा ".
.जैन धर्म के अनुसार "अहिंसा और अपरिग्रह" जीवन के आधार हैं. आज की विषम परिस्थतियों के मद्देंनजर इस आलेख में हम जैन दर्शन के अपरिग्रह के सिद्धांत पर व्यापक चर्चा करेंगे.अपरिग्रह का अर्थ हैं दूसरों की ज़रूरतों का सम्मान या यूं कहें ज़रूरत से ज़्यादा चीज़ों का संचय न करना,दूसरों की ज़रूरतों का सम्मान महावीर का अपरिग्रह का सिद्धांत न केवल बाहरी परिग्रहों, बल्कि मन के विकारों और तनावों को भी त्यागने को संदेश देता है. दार्शनिक संत विद्यासागर मानते हैं परिग्रह मानव धर्म के खिलाफ हैं, अधर्म हैं,आपत्तियों की जड़ परिग्रह हैं.
अहिंसा के बाद, अपरिग्रह जैन धर्म में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण गुण है.जैन परम्परा में परिग्रह-अपरिग्रह पर बहुत सूक्ष्मता से विचार किया गया. इसका भारतीय जन-जीवन, समाज और अर्थव्यवस्था पर हर युग में व्यापक असर हुआ. अपरिग्रह, एक जैन "श्रावक" (अणुव्रत गृहस्थ) के पांच मूल व्रतों में से एक है . यह जैन व्रत एक श्रावक की इच्छाओं और संपत्ति को सीमित करने के सिद्धांत है. जैन धर्म में सांसारिक धन संचय को लालच, ईर्ष्या, स्वार्थ और बढ़ती वासना के एक संभावित स्रोत के रूप में माना जाता है. जीवित रहने के लिए पर्याप्त भोजन करना, दिखावे या अहंकार के लिए खाने से ज्यादा महान माना जाता है. महात्मा गाँधी का ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त अपरिग्रह व्रत का ही रूप है. जैन धर्म की मान्यता के अनुसार जिस प्रकार अहिंसा की साधना के लिये अन्य व्रतों का अनुपालन आवश्यक है उसी प्रकार अपरिग्रह के लिये अन्य व्रतों का अनुपालन आवश्यक है. प्रथम व्रत अहिंसा से शुरू हो कर अंतिम यानि पंचम व्रत अपरिग्रह होता है.
जैन धर्म के प्राचीन ग्रन्थ "तत्त्वार्थसूत्र" में परिग्रह की परिभाषा दी गई है -‘मूर्च्छा परिग्रहः‘ अर्थात् भौतिक वस्तुओं के प्रति तृष्णा व ममत्व का भाव रखना ही मूर्च्छा है. जैन दर्शन के अनुसार तृष्णा एक ऐसी खाई है जिसे कभी पाटा नहीं जा सकता है. जैन दार्शनिकों की दृष्टि में तृष्णा ही दुःख का पर्याय है. यह तृष्णा या आसक्ति ही परिग्रह की जड़ है तथा समग्र परिग्रह हिंसा से ही उत्पन्न होता है.हिंसा का अभिप्राय शोषण से है क्योंकि दूसरों का शोषण किये बिना संग्रह असम्भव है. व्यक्ति संग्रह के द्वारा दूसरों के हितों का हनन करता है और इस प्रकार संग्रह करना भी हिंसा का ही रूप है.
जैना दर्शन के अनुसार यदि मन में अनासक्ति का भाव है तो बाह्य रूप में भी वह भाव प्रकट होना चाहिये इसके लिये गृहस्थ जीवन में परिग्रह मर्यादा और श्रमण जीवन में समग्र परिग्रह के त्याग का निर्देश किया गया है.एक जैन विद्वान के अनुसार हालांकि गृहस्थ जीवन में रहते हुये हिंसा, परिग्रह आदि से पूर्णतः बचना कठिन है. अतः महावीर स्वामी के अनुसार गृहस्थ अपनी सम्यक् दृष्टि का प्रयोग करते हुये जो भी कार्य करे उसके परिणामों पर भली-भाँति विचार करें. सुख-दुःख, लाभ-हानि, विजय-पराजय का विचार किये बिना ही कर्म करने से मनुष्य कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है, अतः मनुष्य को प्रयत्न कर तृष्णा का नाश करने का प्रयत्न करना चाहिये.
जैन साधवी गणिनी प्रमुख ज्ञान मति माताजी के अनुसार "महावीर स्वामी का ‘जियो और जीने दो’ का संदेश आज विश्व भर के लिए मार्गदर्शक बन कर उभरा है.परस्परोपग्रहो जीवानाम् जैन ग्रन्थ ‘तत्वार्थ सूत्र’ का यह वाक्य जैन धर्म का सूत्र वाक्य माना जाता है। इसका अर्थ है कि सभी जीवित प्राणी एक-दूसरे के सहयोग से जीवन में आगे बढ़ते हैं.अपरिग्रह की भावना इन्हीं मूल्यों पर जोर देती हैं". परिग्रह, संचय के लालच में घिरें लोगों को प्रलाप, विलाप और हाहाकार .की सिसकियॉ सुननी चाहियें.इंसानी लाशों के ढेर पर कमाई करने वालों को उन लोगों से सीख लेनी चाहियें जो आज मानव धर्म को सर्वोपरि मानते हुये ्सेवा में जुटे हैं, किसी ने अपनी ऑक्सीजन की फेक्टरी खोल दी हैं. तो किसी ने अपनी वेन बेच दी मदद के लियें. कोई मुफ्त ऑक्सीजन देरहा हैं तो कोई दवाईयॉ,किसी ने अपने गेस्ट हाउस तो कहीं मंदिरों की धर्मशालायें कोविड रोगियों के क्वारटींन के लियें खोल दी गई हैं.पूरे भारत में कोविड रोगी परिवारों के लियें सेवा भावी दसियों किलो मीटर दूर दूर तक भोजन पहुंचा रहे हैं,चाहे वह दिल्ली स्थित नॉयडा का स्वामी अयप्पा मंदिर समिति द्वारा कोविड रोगी परिवारों के भोजन पहुंचाने की व्यवस्था हो. दिल्ली के मयूर विहार स्थित आदि नाथ दिगंबर जैन मंदिर से जुड़े श्रद्धालुओं की समाजिक संस्था श्री ऋषभदेव जैन ज्ञान प्रचार समिति कोविड से पीड़ित परिवारों को जैन भोजन शैली से बना सात्विक भोजन उन के घरों तक पहुंचा रही हैं.इसी तरह की भोजन सेवा से जुड़े समिति के वेणुगोपाल की टीम हो या श्री ऋषभदेव जैन ज्ञान प्रचार समिति से जुड़ी संजीव, प्रवीण जैन व सहयोगियों की टीम हो , जो इस सेवा को विशेष तौर पर महज अपना दायित्व मान कर कर रहे हैं. निराशा भरे माहौल में आशा जगने लगी हैं. "पारस" टी वी चैनल पर ऐसे ही कल्याण कार्यों से जुड़ें एक परोपकारी कह रहे हैं " महावीर जयंती पर इस बार का संदेश यहीं हैं. सभी के दुख दर्द को अपना ही समझें, उसे दूर करने में जुटें... अपरिग्रह की असली व्याख्या यही है. अचानक सूरज भी बादलों को चीरता हुआ सा नजर आने लगा हैं वी एन आई