नई दिल्ली, 4 सिंतबर, (शोभना जैन/वीएनआई) गत दिवस सोशल मीडिया पर एक पोस्ट से तबाही से गुजर रहें अफगानिस्तान की सड़कों के मौजूदा भयावह मंजर से जुड़तें से लगें.गत एक सितंबर को अंतर राष्ट्रीय युद्ध विरोधी दिवस पर डाली गयी इस पोस्ट में प्रेमिका प्रेमी से सवाल पूछती हैं " हम मिलेंगें कब ", प्रेमी कहता हैं" युद्ध समाप्त होने के बाद." प्रेमिका पूछती हैं" युद्ध कब समाप्त होगा ?" प्रेमी कहता हैं"जब हम मिलेंगे" यानि युद्ध की विभीषिका अनवरत चलती रहेगी, मिलना नहीं होगा.अफगानिस्तान में तालिबान सत्ता पर काबिज हो चुका हैं, अमरीकी और नाटों फौजें सवालों के बीच निर्धारित समयावधि से पहलें ही हड़बड़ी में देश छोड़ चुकी हैं. कांधार पर कब्जें के अठारह दिन बाद भी तालिबान के अंदर चल रही मंत्रणाओं के बावजूद अंदर खानें में विभिन्न गुटों की गुटबाजी के चलतें सरकार को लेकर अटकलबाजीं जारी हैं. क्या वहा राजनेताओं को मिला कर मिली जुली सरकार बनेगी, सरकार का मुखिया कौन होगा?? हालांकि अब तालिबान का कहना हैं कि जल्द ही सरकार के गठन की घोषणा कर दी जायेगीं. वहा की मौजूदा अराजक स्थति के बीच सवाल हवा में लगातार तैरतें ही रहेंगे कि आतंक के सफायें के लियें वहा पहुंची अमरीका नीत नाटों फौजें बीस बरस तक टिकें रहनें के बाद आखिर हासिल क्या हुआ.बीस बरस पहलें भी तालिबान वहा था आज फिर वहीं तालिबान वहा सत्ता पर कब्जा कर चुका है.देश में अफरातफरी और अराजकता का माहौल हैं.पूरी दुनिया की नजर तालिबान के अगलें कदम पर टिकी हैं.
बरसों बरस तक तालिबान के सरपरस्त रहें पाकिस्तान के साथ साथ उस के साथ मित्रता जतानें वालें चीन और रूस जैसे देशों ने भी उस के साथ मित्रता दर्शानें के बावजूद उसे अभी तक मान्यता देने के बारें में कुछ सार्वजनिक तौर पर नही कहा हैं. वे भी सरकार के गठन और शायद उसके स्वरूप का इंतजार कर रहे हैं.और भारत,अमरीकी फौजों के हटने के कुछ समय बाद ही भारत ने जमीनी हकीकत समझतें हुयें तालिबान से अब तक दूरी के बावजूद कुछ उहापोह के बाद तालिबान से सीधें बात नहीं करनें की अपनी अब तक अपनाई गई लाईन से हटतें हुयें तालिबान से दो दिन पाले ही सीधे बातचीत की, लेकिन सवाल हैं कि क्या तालिबान भारत के साथ अफगानिस्तान के सह्योगी भरोसेमंद रिश्तों की कद्र करते हुयें सामान्य रिश्तें, राजनैतिक, आर्थिक संपर्क रख्ने को तैयार हैं या यूं कहें ऐसे संबंध रखनें की वाकई उस की मंशा हैं, अगर वह कह रहा हैं कि अपनी भूमि को वह आतंक के लियें इस्तेमाल नहीं होने देगा खास तौर पर ऐसे में जबकि पाकिस्तान उस का सर परस्त रहा है और तालिबान के पिछले कार्यकाल में भारत आतंक का शिकार होता रहा. खास तौर पर कथनी करनी में इस फर्क के बीच पर्दें के सामनें पाकिस्तान और पीछें से चीन तो ऐसा कतई नहीं चाहेंगे. निश्चय ही भारत के लियें अफगानिस्तान के मौजूदा हालात बेहद चुनौतीति पूर्ण हैं, सुरक्षा को ले कर भारत की चिंतायें गहरी हैं.विशेष तौर पर तालिबान में पाकिस्तान की गुपतचर एजेंसी आई एस आई से नजदीकी तौर पर जुड़ा तालिबान का हक्कानी गुट का बढ़ा वर्चस्व भारत की सुरक्षा को ले कर चिंता बढानें वा्ला हैं. इस के साथ ही तालिबान से अलग धड़ा,पाक स्थित तालिबान काआइएस खुरासान भी खासा सक्रिय है.
तालिबान के प्रवक्ता हालांकि कह चुके हैं कि कश्मीर का मुद्दा भारत-पाकिस्तान को सुलझाना चाहिए और वो बार-बार भरोसा दिला रहा है कि वो अपनी जमीन को आतंकवाद को बढ़ावा देने के लियें इस्तेमाल नहीं होने देगा. लेकिन 1996-2001 के तालिबान के कालें दिनों की बात फिलहाल ना भी करें तो देश के अंदर के ंमौजूदा हालात की ही बात करें तो, तालिबान महिलाओं पर शरई कानून के नाम पर दमनचक्र चला रहा हैं,भयाक्रांत अफगान किसी भी तरह सुरक्षित पनाह के लियें शरणार्थी बन विदेशों में शरण पाने के लियें भाग रहे हैं.अपने एक विरोधी को जिस तरह से हेलिकॉप्टर से लटका कर हवा में मौत के घाट उतारा गया वो तस्वीर बर्बर समाज को भी हिला दें. आर्थिक स्थति खस्ताहाल हैं, यानि इस बार भी उन की कथनी करनी में फर्क साफ दिखाई दे रहा हैं.दो दिन पहले ही अल क़ायदा ने तालिबान को बधाई देते हुए कश्मीर को आज़ाद कराने की बात कह डाली. लगता तो यही हैं कि, अगर कुछ क्षण तालिबाब की कश्मीर टिप्पणी पर भरोसा कर भी लें तो वहां आतंकी संगठनों के हौसले बढ़े हुए हैं और वो तालिबान की आधिकारिक मर्ज़ी के बिना भी कश्मीर में घुसपैठ और हिंसा की कोशिश कर सकते हैं. ्हालांकि फिलहाल जम्मू कश्मीर पर काबुल का असर नहीं दिख रहा है .पहले भी जब अफगानिस्तान में तालिबान आया था तब उस वक्त आईएसआई ने कश्मीर में मुजाहिदों को भेजा था,पुराने समय का अनुभव डरावना रहा. दिसंबर 1999 में इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण होने के बाद तालिबान द्वारा मध्यस्थ के तौर पर
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