नई दिल्ली, 14 मई । हिंदी साहित्य की सेवा करने वालों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का विशेष स्थान है। उनकी अनुपम साहित्य सेवाओं के कारण ही उनके समय को 'द्विवेदी युग' के नाम से जाना जाता है। सरल और सुबोध भाषा लिखने के पक्षधर द्विवेदी जी ने लेखकों को सरल और परिमार्जित भाषा में लिखने की प्रेरणा दी।
हिंदी के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म 15 मई, 1864 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के दौलतपुर गांव में हुआ था। धन के अभाव में इनकी शिक्षा का क्रम अधिक समय तक नहीं चल सका। हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी का उन्होंने घर पर ही अध्ययन किया। उन्हें 'आचार्य' की उपाधि तो वर्ष 1931 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने दी थी।
नौकरी के लिए वह मुंबई पहुंचे। वहां टेलीग्राफ विभाग में उन्हें काम मिल गया। बाद में इंडियन मिडलैंड रेलवे में वह तार बाबू के रूप में नियुक्त हुए।
नौकरी के साथ साथ महावीर अध्ययन में भी जुटे रहे। उन्होंने हिंदी के अलावा मराठी और गुजराती का भी ज्ञान प्राप्त किया। सन् 1903 में द्विवेदी जी ने मासिक पत्रिका 'सरस्वती' के संपादन का कार्यभार संभाला। इस पत्रिका के संपादक के रूप में हिंदी को आगे बढ़ाने के लिए भी उन्होंने बहुत कुछ किया। इसलिए इन पर कोई भी गर्व कर सकता है। 'सरस्वती' से अलग होने के बाद जीवन के अठारह वर्ष इन्होंने अपने गांव में बिताए।
कविता, कहानी, आलोचना, पुस्तक समीक्षा, अनुवाद, जीवनी आदि विधाओं के साथ उन्होंने अर्थशास्त्र, विज्ञान, इतिहास व अन्य अनुशासनों को न केवल लिखा, बल्कि अन्य लेखकों को भी इस दिशा में लेखन के लिए प्रेरित किया। महावीर नैतिकता के प्रतीक थे। इनके विचारों और कथनों के पीछे इनके व्यक्तित्व की गरिमा भी कार्य करती रही।
'काव्य-मंजूषा', 'कविता-कलाप' और 'सुमन' उनके काव्य-संग्रह हैं। उन्होंने कालिदास रचित 'मेघदूतम्' और 'कुमार संभवम्' का हिंदी में अनुवाद भी किया था। साहित्य-समालोचना के कई ग्रंथों के अलावा उनके सौ से ज्यादा निबंध प्रकाशित हुए।
अपने गांव दौलतपुर में रहते हुए 21 दिसंबर, 1938 को आचार्य द्विवेदी का देहांत हो गया और सके साथ ही हिंदी साहित्य की आचार्य-पीठ अनिश्चितकाल के लिए सूनी हो गई।--आईएएनएस