डोंगरगढ़/छत्तीसगढ़, 18 फरवरी (शोभना,अनुपमा जैन/वीएनआई) सुबह दुपहरी की ओर बढ रही थी,सूर्य का प्रकाश तेज हो रहा था, लेकिन उस में तपन नहीं बल्कि मद्धम सी गर्माहट थी, ऊर्जा भरी एक अजीब सी शांति थी,मानो मन तो वीतरागी हो ही उठे और तन भी वीतरागी हो जायें. उंचे विराट कचनार के के दहकते से लाल पीले फूलों वाले "डोला" पर सुखासन की मुद्रा में रखी एक दिव्य पार्थिव देह और उसे कंधा देते वीतरागी से श्रद्धालु. वातावरण निरंतर जय जय गुरुदेव, जय जय आचार्य भगवान के जयघोष के स्वरों से गूंज रहा हैं. मंत्रोच्चार चल रहे है. यह दिगंबर जैन परंपरा के साधक घोर तपस्वी, दार्शनिक सिद्ध आचार्य भगवन विद्यासागर जी महाराज का देह त्याग यानि मृत्यु उत्सव है, लेकिन इस उत्सव मे एक सौम्यता, एक ठहराव भरा हैं . डोला के पीछे अंतिम विदा देने के लिये साथ साथ चल रहे मुनि जनों, साधु संतों, श्वेत वस्त्र धारी साध्वियॉ सहित सभी श्रद्धालुओं के चेहरे पर स्थिर, वीतरागी मुद्रा सी नजर आ रही. कभी कभी आँचल के कोरों से रह रह कर छलक जाती आंखों को पोंछती आर्यिकाये... वीतरागता का संदेश देते उस के मर्म को समझते हैं शायद सभी.जन्म, जीवन को दार्शनिकों ने उत्सव बताया है लेकिन मृत्यु महोत्सव यानि महा उत्सव, यह तमाम दृश्य आचार्य भगवन के इसी मृत्यु महोत्सव के हैं.
आचार्य ज्ञान सागर के शिष्य आचार्य विद्यासागर ने 77 साल की उम्र में छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ स्थित चंद्रगिरि तीर्थ में 3 दिनों के उपवास और पूर्ण जैन अनुष्ठान के साथ कल देर रात २.३५ के करअपना शरीर त्याग दिया हैआचार्य के शरीर त्यागने का पता चलते ही दर्शन के लिए इस उनींदे से कस्बें मे महाराज श्री को अपने श्रधा सुमन अर्पित करने वालो का जन सैलाब उमड़ पड़ा.
परम विद्वान ,चिंतक,घोर तपस्वी, ्ये जैन मुनि जो पिछले 56 बरसों से घोर तप मे रत रहे.अठारह वर्ष की किशोर आयु में ब्रह्मचर्य की दीक्षा लेने वाले घोर तपस्वी संत, आचार्य विद्यासागर दिगम्बर जैन संत परंपरा के त्याग, तपस्या मुनि परंपरा का विलक्षण व आदर्श उदाहरण रहे है. जैन दिगंबर परंपरा के अनुसार ्दिगंबरत्व ग्रहण करने के बाद वस्त्रों का त्याग किया.आचार्य श्री ने पिछले 51 बरसो से मीठे व नमक, पिछले 42 वर्ष से रस, फल का त्याग किया हुआ था, उन्होंने 18 वर्ष की आयु से रात्रि विश्राम के समय चटाई तक का भी त्याग किया , जैन साधु परंपरा के अनुसार तख्त पर सोते रहे 24 वर्ष से दिन में सोने का भी त्याग किया. 28 वर्ष से मिर्च मसालों का भी त्याग किया आहार में सिर्फ चुने अनाज , दाले व जल ही लेते और जैन आगम की पंरपरा का पालन करते हुए दिन में केवल एक बार कठोर नियमो का पालन खड़्गासन मुद्रा में हाथ की अंजुलि में भोजन लेते थे भोजन में किसी भी प्रकार के सूखे फ़ल और मेवा और किसी प्रकार के व्यंजनों का सेवन भी नहीं करते ,थे बमुश्किल तीन घंटे की नींद लेते थेऔर इसी तप साधना से अपनी इंद्रिय शक्ति को नियंत्रित कर केवल एक करवट सोते थे मल मूत्र विसर्जन भी अपने नियम के निर्धारित समयानुसार ही करते थे. घोर बीमारी और असआध्य शारीरिक पीड़ा के बावजूद चिकित्सा नही करी,वृद्धा वस्था में ऑख की रोशनीकमजोर होने पर भी एनक नही लगाया. तप ही तप, घोर साधना आत्म अनुशासन का जीवन और अति उच्च शिक्षित उनके संघस्थ मुनि, साधु, साध्वियों ने भी ऐसे अनुशासन वाले जीवन का वरण किया.
दिगम्बर जैन संत परंपरा के अनुरूप परम तपस्वी विद्यासागरजी वाहन का उपयोग नहीं करते थे, न शरीर पर कुछ धारण करते पूर्णतः दिगम्बर नग्न अवस्था में रहते थे. भीषण सर्दियो व बर्फ से ढके इलाको मे भी दिगम्बर जैन पंरपरा के अनुरूप जैन साधु दिगंबर अवस्था में ही रहते रहे और सोने के लिये लकडी का तख्त ही इस्तेमाल करते, पैदल ही विहार करते हुए उन्होंने देश भर मे हज़ारो किलोमीटेर की यात्रा की, वाहन दिगम्बर जैन पंरपरा के साधुओ साध्वियो लिये वर्जित है। देश विदेश से आम और खास सभी इस तपस्वी से सेवा, अर्जन केवल जरूरत के लिये, अपरिग्रह . जीव मात्र से दया चाहे वह वनस्पति हो या जीव, स्त्री शिक्षा ,अहंकार त्यागने, निस्वार्थ भावना से कमजोर की सेवा करने जैसी सामान्य सीख की 'मंत्र दीक्षा 'लेने आते है. एक श्रद्धालु के अनुसार ' इस तपस्वी संत की विशेषता यही है कि उनके पास श्रद्धालु उनके घोर तप से प्रभावित हो कर आते हैं, किसी चमत्कारिक मंत्र के लिए नहीं. उन के अप्रतिम त्याग और तेज के चलते एक आदर्श जीवन की सीख की सकारात्मकता से खिंचे चले आते हैं.
'आचार्य श्री विद्यासागर जी एक महान संत के साथ साथ एक कुशल कवि वक्ता एवं विचारक भी रहे , काव्य रूचि और साहित्यानुरागी उन्हें विरासत मे मिला था. कन्नड भाषी, गहन चिंतक यह संत प्रकांड विद्वान है जो प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिंदी, मराठी, बंगला और अंग्रेज़ी में निरंतर लेखन कर रहे । उनकी चर्चित कालजयी कृति ‘मूकमाटी’ महाकाव्य है। यह रूपक कथा काव्य अध्यात्म दर्शन व युग चेतना का अद्भुत मिश्रण है दरअसल यह कृति शोषितों की उत्थान की प्रतीक है, किस तरह पैरों से कुचली जाने वाली माटी की मंदिर का शिखर बन जाती है अगर उसे तराशा जाये. देश के 300 से अधिक साहित्यकारों की लेखनी मूक माटी को रेखांकित कर चुकी है.
आचार्य श्री के लगभग 300 से अधिक साधु साध्वियों के आचार्य जी के संघ मे एम टेक, एम सी ए व उच्च शिक्षा प्राप्त मुनि गण है जो ्पूरी शिक्षा ग्रहण करने के बाद संसार को त्याग कर अपनी खोज और आत्म कल्याण की साधना मे रत थे, ये सभी अपने इस जीवन को जीवन की पूर्णता मानते है.तिरेपन वर्ष पूर्व मात्र 22 वर्ष की आयु मे अपने गुरु आचार्य ज्ञानसागर जी से दीक्षा लेने वाले इस संत के जीवन की एक अप्रतिम घटना यह है कि उनके गुरु ने अपने जीवनकाल में आचार्य पद का अपने इस शिष्य को सौंप कर अपने इस शिष्य से ही समाधिमरण सल्लेखना(जैन धर्मानुसार स्वेछामृत्युवरण) ली. अब इसी परंपरा का पालन करते हुयें आचार्य भगवन ने मुनि अवस्था के लिये दीक्षित अपने पहले मुनि समय सागर जी महाराज को आचार्य पद सौंप कर उन्हीं की छाया में मृत्यु वरण किया. देह तयाग से पूर्व सवा माह पहले उन्होंने अनाज का सेवन भी छोड़ दिया और तीन दिन पहले कठोर मौन व्रत ग्रहण किया और कल देर रात साधु संतो, साध्वियों के मंत्रोच्चर और श्रधालुओं की उपस्थति मे देह तयाग दी और एक प्रकाश पुंज अनंत में विलीन हो गया.
आचार्यश्री समाज को कोई चमत्कारिक मंत्र नही अपितु दुखी के आँसू पोछने,आदर्श जीवन जी्ने, परोपकार, सामाजिक सौहार्द, प्राणी मात्र का कल्य़ाण. अपरिग्रह व स्त्री शिक्षा, स्त्री अधिकार सम्पन्नता की "मंत्र दीक्षा" देते रहे. उन की प्रेरणा से उनसे प्रभावित श्रद्धालु समाज कल्याण के अनेक कार्यक्रम चला रहे है, जिनमे स्त्री शिक्षा, पशु कल्याण, पर्यावरण रक्षा,अस्पताल,हथकरघा, स्त्री साक्षरता जैसे कितने ही कार्यक्रम है. जेल में रहने वाले कैदियों को आदर्श जीवन की और लाने के लिये इन की प्रेरणा से उन के शिष्य प्रणम्य सागर जी के सानिध्य में अर्हम योग साधना सिखाई जा रही ्हैं. नैतिक मूल्यों पर आधारित बच्चियो की शिक्षा के लिये प्रतिभा स्थली एक अनूठा प्रयोग माना जाता है. मध्यप्रदेश के जबलपुर स्थित इस संंस्थान की सफलता के बाद इसकी एक शाखा अब प्रदेश के ड़ूंगरपुर मे भी खोली गयी है
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