नई दिल्ली, 12 मई (शोभना जैन/ वीएनआई) अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा ईरान परमाणु समझौते से अलग होने के दूरगामी परिणाम वाले फैसले से दुनिया भर में चिंता के बादल छा गये है.एक तरफ जहां इस फैसले का असर भारत सहित दुनिया भर की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा, साथ ही इस फैसले से पश्चिम एशिया, मध्य-पूर्व की राजनीति के और जटिल होने और दुनिया के अनेक देशो के एक दूसरे के साथ रिश्तो के समीकरण भी बदलने की आशंका है.
अमरीका का यह इकतरफा फैसला कितना तर्क संगत है, इस का जबाव तो भविष्य के गर्भ मे है लेकिन यह तय है कि इस का असर दुनिया मे अमरीका की भूमिका और अंतरराष्ट्रीय नियमों पर आधारित व्यवस्था पर पड़ना स्वाभाविक है.इन तमाम हालात मे इस फैसले की तपिश का भारत में आम आदमी की जेब पर प्रतिकूल असर से ले कर ,घरेलू राजनीति,ईरान के साथ निर्माणाधीन अहम चाबहार पोर्ट परियोजना और भारत के अतंराष्ट्रीय संबंधो पर भी पड़ने की आशंका है इस फैसले का सब से ज्यादा असर तेल की कीमतो पर पड़ने का अंदेशा है जिस से सीधे तौर पर भारत में आम आदमी प्रभावित होगा. ऐसे मे जब कि अंतराष्ट्रीय बाजार मे तेल की कीमते पहले से ही बढ रही है और इस फैसले के तुरंत बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चा तेल जिस तरह से महंगा हो कर 80 डॉलर प्रति बैरल की उंचाई पर पहुंचा है, उस से यह बात बखूबी समझा जा सकता है. अब भारत को कच्चा तेल खरीदने के लिए ज्यादा रकम चुकानी होगी. ्यानि घरेलू बाजार में पेट्रोल और डीजल ज्यादा महंगे हो जाएंगे , जिससे आम आदमी की मुश्किलें बढ़ेंगी. जहां डीजल के दाम बढ़ने से मालढुलाई महंगी हो जाएगी. वहीं, जन परिवहन की लागत भी बढ़ेगी. इस सब से फल, सब्जी और राशन आदि की कीमतों में तेजी आएगी. इसके अलावा हवाई ईंधन एटीएफ (एयर टर्बाइन फ्यूल) महंगा होने से विमान किराया बढ़ सकता है, ऐसे मे रूपये की कीमत मे गिरावट रोकने के लिये और मुद्रा स्फीति पर अंकुश लगाने के लिये भारतीय रिजर्व बेंक ब्याज दर बढाने जैसे कदम उठा सकता है.तेल की कीमतों में वृद्धि डॉलर के मुकाबले रुपये की हालत खराब कर सकता है और मुद्रास्फीति में वृद्धि हो सकती है.्गत सप्ताह तेल की कीमतें चार साल में उच्च्तम स्तर पर पहुंच गयी हैं.यहा यह जानना अहम होगा कि इस मंहगाई का भारत की घरेलू राजनीति पर भी असर पड़ सकता है, और सरकार की दिक्कते बढा सकती है,खास तौर पर जब कि कि यह चुनावी वर्ष है.
ऐसे में जब कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें बढ़ने का दबाव पहले से ही भारत पर बढ़ रहा है, ईरान पर प्रतिबंध इसे और बढ़ा सकता है क्योंकि इराक और सऊदी अरब के बाद ईरान हमारा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता देश है.गौरतलब है कि करार रद्द करने के बाद श्री डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि साल 2015 में ईरान के साथ हुए समझौते के बाद आर्थिक प्रतिबंधों में जो रियायतें दी गई थीं, उसे वो हटाएंगे. इस फैसले से भारत पर दबाव पड़ेगा और जैसा कहा गया है कि घरेलू बाजार में कई चीजें महंगी हो जाएंगी.
आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि अगर पेट्रोल और डीजल की कीमतें ऐसे ही बढ़ती रहीं, तो राज्यों पर वैट घटाने को लेकर दबाव बढ़ सकता है.भारत खनिज तेल का बड़ा इंपोर्टर देश है और अपनी जरूरत का 85 फीसदी कच्चा तेल आयात करता है. ऐसे में कच्चा तेल महंगा होता है तो इंपोर्ट बिल के रूप में सरकार को ज्यादा पैसा चुकाना पड़ता है. ऑयल आयात महंगा होने से देश के सरकारी खजाने पर असर होगा आंकड़ों के नजरिये से अगर देखे तो पिछले 10 महीनों से खनिज तेल महंगा बना हुआ है, जिससे इस का इंपोर्ट बिल भी बढ़ रहा है. अप्रैल-फरवरी के दौरान भारत का क्रूड इंपोर्ट बिल 25 फीसदी बढ़कर 8070 करोड़ डॉलर हो गया.
आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार कि क्रूड ऑयल की कीमतें ्वित्त वर्ष 2019 में 12 ्प्रतिशत तक बढ़ सकती हैं. अगर ऐसा होता है कि देश की अर्थव्यवस्था पर इसका असर दिखेगा.इन ऑकड़ों के अनुसार कच्चे तेल में हर 10 डॉलर की बढ़ोत्तरी से जीडीपी 0.3 प्रतिशत तक गिर सकती है, वहीं महंगाई दर भी 1.7 प्रतिशत बढ सकती है.
गौरतलब है कि जुलाई 2015 में तत्कालीन राष्ट्रपति ओबामा नीत अमरीकी प्रशासन और ईयू समेत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पॉच स्थाई सदस्यो के ईरान के साथ हुए संयुक्त व्यापक कार्य योजना(ज्वॉइंट कंप्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन) जे सी पी ए यानि परमाणु समझौते के तहत ईरान पर हथियार खरीदने पर पांच साल तक प्रतिबंध लगाया गया था, साथ ही मिसाइल प्रतिबंधों की समय सीमा आठ साल तय की गई थी. बदले में ईरान ने अपने विवादस्पद और बरसों तक अमरीका सहित विश्व समुदाय की ऑख की किरकिरी बने परमाणु कार्यक्रम , जिस की वजह से ईरान को विश्व समुदाय से बरसो तक आर्थिक प्रतिबंध झेलने पड़े थे, उसी विवादास्पद परमाणु कार्यक्रम का बड़ा हिस्सा बंद कर दिया और बचे हुए हिस्से की निगरानी अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों से कराने पर राज़ी हो गया था, लेकिन अब समझौते से अमरीका के इकतरफा तौर पर हट जाने से तमाम हालात बदल गये है हालांकि समझौते पर दस्तख़त करने वाले ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने राष्ट्रपति ट्रंप से इस समझौते से अलग न होने की अपील की थी, इन देशों ने ये संकेत भी दिया था कि राष्ट्रपति ट्रंप चाहे जो भी फ़ैसला करें, वे ईरान के साथ हुए तीन साल पुराने समझौते पर कायम रहेंगे. ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने इस फैसले को अस्वीकार्य बताते हुए कह चुके हैं कि उनका देश इस करार पर दस्तखत करनेवाले अन्य देशों के साथ मिलकर काम करेगा, लेकिन उधर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का तर्क था कि यह करार एकतरफा और दोषपूर्ण था तथा इससे ईरान के परमाणु आकांक्षाओं पर रोक लगाने में कामयाबी नहीं मिली है, और वे ये दलील दे कर समझौते से अलग हो गये.
इन परिस्थितियों मे यहा हम अगर भारत की बात करे तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें बढ़ने का दबाव पहले से ही भारत झेल रहा है. ईरान पर प्रतिबंध इसे और बढ़ा सकते है, क्योंकि इराक और सऊदी अरब के बाद ईरान हमारा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता देश है. विशेषज्ञों के अनुसार ओपेक और रूस के खनिज तेल उत्पादन मे कटौती की वजह से विश्व बाजार पहले ही संकट मे है. भारत की उर्जा आवश्यकताये चूंकि मुख्यतः आयात से ही पूरी होती है इस लिये यह फैसला उस के लिये और भी चिंता बढाने वाला है. गत 24 अप्रैल के ऑकड़े को अगर ले तो दिल्ली में ्डीजल की कीमत प्रति लीटर 65.93 रूपयें रही और पेट्रोल की कीमत 74.63 रूपये प्रति लीटर रही जो कि 14 सितंबर 2013 के बाद से सबसे ज्यादा यानि रिकॉर्ड ज्यादा है. ऐसे मे इस संकट के बाद स्थति और भी खराब होने की आशंका है और कच्चे तेल की कीमते बढने का यही आलम रहा तो मुद्रा स्फीति और वर्मान लेखा घाटा और भी बढ सकता है. ऑकड़ो के अनुसार 2018 के वित्त वर्ष में तेल आयात पिछले वर्ष से 25 प्रतिशत बढ गया और ये बढी हुई कीमतें भारत के व्यापार घाटे को और भी प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है.
ईरान परमाणु करार से अमेरिका के अलग होने की घोषणा के साथ ही राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान पर कठोर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की भी बात कही है. उन्होंने यह भी कहा है कि जो देश इन प्रतिबंधों को नकारते हुए ईरान से लेन-देन करेंगे, उन्हें भी खराब नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं. भारत और ईरान के बीच व्यापक द्विपक्षीय संबंध हैं और ट्रंप का यह फैसला दोनों देशों के साझा हितों पर असर डाल सकता है, यहा यह समझना होगा कि भारत जैसे अमेरिका के करीबी देशों ने ईरान के साथ तेल पर समझौता किया है, वो सभी ट्रंप के फैसले से विवाद में आयेंगे. भारत और ईरान के बीच व्यापक द्विपक्षीय संबंध हैं और ट्रंप का यह फैसला दोनों देशों के साझा हितों पर असर डाल सकता है.इस बीच भारत और ईरान के संबंध प्रगाढ़ हुए हैं, लेकिन एक बार फिर अमेरिका, ईरान पर प्रतिबंध लगाने जा रहा है. जाहिर है कि भारत के लिए स्थिति बहुत उलझाऊ हो गई है, इसका असर कई महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट पर होने वाला है. इनमें चाबहार पोर्ट सबसे अहम है, अगर इस परियोजन्ना से भारत को किसी भी तरह से अलग होना पड़ता है तो इस का सीधा फायदा चीन को पहुंचेगा जो इस क्षेत्र पर नजर गड़ये हुए है और पाकिस्तान तो इसे पूरे होने देना ही नही चाहता है. भारत के द्विपक्षीय संबंध ईरान के साथ बहुत मजबूत रहे हैं और फिलहाल दोनों देश चाबहार पोर्ट पर मिलकर काम कर रहे हैं. भारत ने चाबहार पोर्ट में 500 मिलियन डॉलर का निवेश किया है, जोकि रणनीतिक रूप से भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. हालांकि चाबहार पोर्ट के विकास का काम पहले ही बहुत देरी से चल रहा है और अगर भारत चाबहार पोर्ट में आगे निवेश करता है, तो अमेरिका इसे अपने पक्ष के खिलाफ एक यह अहम मुद्दा बना सकता है.
गौरतलब है कि ओमान की खाड़ी में स्थित यह पोर्ट पाकिस्तान में चीन के ग्वादर पोर्ट से सिर्फ 85 किलोमीटर की दूरी पर है. इस पोर्ट के जरिए भारत पाकिस्तान को बाईपास करते हुए अफगानिस्तान और सेंट्रल एशिया तक पहुंच सकता है. चाबहार पोर्ट के जरिए भारत से सामान के आयात-निर्यात में लगने वाले समय और लागत में एक तिहाई की कमी आएगी. इस पोर्ट के पूरी तरह विकसित होने से भारत, अफगानिस्तान और ईरान के बीच व्यापार को जबरदस्त बढ़ावा मिल सकता है, क्योंकि पाकिस्तान, नई दिल्ली को दोनों देशों के बीच व्यापार के लिए रास्ता देने से इनकार करता रहा है. चाबहार पोर्ट बनने के बाद सी रूट से होते हुए भारत के जहाज ईरान में दाखिल हो पाएंगे और इसके जरिए अफगानिस्तान और सेंट्रल एशिया तक के बाजार भारतीय कंपनियों और कारोबारियों के लिए खुल जाएंगे. इसलिए चाबहार पोर्ट व्यापार और सामरिक लिहाज से भारत के लिए काफी अहम है. इसी तपिश के दायरे मे कुछ और मुद्दो के अलावा शंघाई सहयोग संगठन मे ईरान की सदस्यता के मुद्दे के भी आने की आशंका है. शंघाई सहयोग संगठन की अगले माह चीन में आयोजित इस संगठन की बैठक में ईरान को भी शामिल किये जाने की संभावना है. इसमें चीन और रूस मुख्य भूमिका में हैं तथा भारत के साथ पाकिस्तान भी इस संगठन का सदस्य है. ईरान के शामिल होने से अमेरिका इस संगठन को अपने हितों के विरोधी के बतौर करार दे सकता है तथा सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और इस्राइल जैसे देशों के साथ भारत के संबंध प्रभावित हो सकते हैं, जो ईरान के परंपरागत विरोधी हैं. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ मिलकर हिंद-प्रशांत इलाके में सहयोग विकसित करने की भारतीय कोशिशों को भी झटका लग सकता है.
इसी डील के जरिए वैश्विक स्तर पर ईरान के भारत सहित अन्य देशों के साथ रिश्ते सामान्य या यूं कहे प्रगाढ़ हुए हैं, लेकिन एक बार फिर अमेरिका, ईरान पर प्रतिबंध लगाने जा रहा है. यहा यह समझना दिलचस्प होगा कि मध्य-पूर्व में अमेरिका के मित्र देशों- इस्राइल, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात- ने ईरान परमाणु करार पर अमेरिकी फैसले का समर्थन और स्वागत किया है . सम्भवत इ्सी का नतीजा ही है कि सीरिया मे ईरन के सैन्य ठिकानो पर फिलहाल इजरायली हमले हो रहे है. हालांकि अमरीका के इस समझौते से हट जाने के बाद यह समझौता अभी कायम है किंतु निश्चय ही ईरान पर अमेरिका के कठोर आर्थिक प्रतिबंध फिर से लागू हो जाने की आशंकाओ के मद्देनजर अंतरराष्ट्रीय राजनीति और व्यापार के मोर्चे पर जटिल तनावों की आशंकाएं बढ़ गयी हैं. आनेवाले दिनों में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों तथा शेष विश्व के बीच तनातनी की हालत पैदा हो सकती है.भारत भी स्थति पर नजर रखे हुए है इसी लिये उस ने निहायत ही सधी हुई प्रतिक्रिया मे मुद्दे का सौहार्द्पूर्ण समाधन करने की बात कही है, साथ ही यह भी कहा है कि ईरान के परमाणु उर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के अधिकार का सम्मानन किया जाना चाहिये.इन हालात मे ्निश्चय ही अमरीका सहित ईरान व अन्य देशो के साथ भारत को अपने संबंधो को ले कर सतर्कतापूर्ण ढंग से कदम उठाने व नियम आधारित व्यवस्था को सम्मान दिये जाने के अपने सिद्धांत के अनुरूप पक्ष रखना होगा. साभार-लोकमत (लेखिका वीएनआई न्यूज़ की प्रधान संपादिका है)